ग़जल
अब सोचते जिएँ वफ़ा के बग़ैर भी …..
पर सोचते न जियें अना के बग़ैर भी …..
जो चार ही कदम चलना था बड़ा कठिन …..
चलते रहे मगर हम दुआ के बग़ैर भी …..
दुश्वारियाँ रहीं हर बार राह में …..
तेरा नहीं गुज़र ज़फ़ा के बग़ैर भी …..
है प्यार देख नाज़ुक ही ज़ख़्म भी हुये …..
सब दर्द ही सहा है रज़ा के बग़ैर भी ….
चलता बना तभी बिन बोले हमें कहीं …..
जीना पड़ा हमें पिया के बग़ैर भी …..
कैसा नसीब है यह कैसा है खेल ये …..
यह ज़िंदगी सज़ा है ख़ता के बगैर भी
— रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘