चंहू ओर
उम्मीद का दामन थामे चले थे मंजिल की ओर
राह में नाउम्मीद के अवरोधक थे चहुं ओर !
कल तक जो ख्वाब आंखों में थे सजे हुए
वक्त की आंधी से ख्वाब बिखरे चंहू ओर !
सुनते आए है हर रात की सुबह होती है जरुर
मालूम न था उजाले से पहले गहन अन्धकार होता है चंहू ओर !
बेबसी का सिलसिला जारी है जाने कब से
मानो निराशा के घने बादल छाए हुए हैं चंहू ओर !
बस पल दो पल की खुशी नसीब है जहान में
दुःख तो बिखरा है मानो चंहू ओर !
— विभा कुमारी ‘नीरजा’