गीत “मानस में संवेद नहीं”
गीत “मानस में संवेद नहीं”
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देश-वेश परिवेश धर्म का, मन में कुछ भी भेद नहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।
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सरदी की ठण्डक में ठिठुरा, गर्मी की लू झेली हैं,
बरसातों की रिम-झिम से, जी भर कर होली खेली है,
चप्पू अब भी सही-सलामत, नौका में है छेद कहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।
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सुख में जी भरकर मुस्काया, दुख में कभी नहीं रोया,
जीवन की नाजुक घड़ियों में, धीरज कभी नहीं खोया,
दुनिया भर की पोथी पढ़ लीं, नजर न आया वेद कहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।
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आशा और निराशा का, संगम जीवन परिभाषा है,
कभी गरल है, कभी सरल है, जीवन एक पिपासा है,
गलियों-गलियों में मक्कारी, दिखा कहीं श्रम-स्वेद नहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।
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दुनियाभर में हिंसा का, परिवेश नजर आता है,
‘रूप’ आदमी का लोगों को, अब तो बहुत डराता है,
मानव-दानव बन बैठा है, मानस में संवेद नहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)