गीत/नवगीत

गीत “मानस में संवेद नहीं”

गीत “मानस में संवेद नहीं”

देश-वेश परिवेश धर्म का, मन में कुछ भी भेद नहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।

सरदी की ठण्डक में ठिठुरा, गर्मी की लू झेली हैं,
बरसातों की रिम-झिम से, जी भर कर होली खेली है,
चप्पू अब भी सही-सलामत, नौका में है छेद कहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।

सुख में जी भरकर मुस्काया, दुख में कभी नहीं रोया,
जीवन की नाजुक घड़ियों में, धीरज कभी नहीं खोया,
दुनिया भर की पोथी पढ़ लीं, नजर न आया वेद कहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।

आशा और निराशा का, संगम जीवन परिभाषा है,
कभी गरल है, कभी सरल है, जीवन एक पिपासा है,
गलियों-गलियों में मक्कारी, दिखा कहीं श्रम-स्वेद नहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।

दुनियाभर में हिंसा का, परिवेश नजर आता है,
‘रूप’ आदमी का लोगों को, अब तो बहुत डराता है,
मानव-दानव बन बैठा है, मानस में संवेद नहीं।
देख लिए पतझड़-बसन्त, अब जाने का है खेद नहीं।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है