मुक्तक
आत्मा बदलती वस्त्र, जीर्ण शीर्ण हो गये,
कुछ वक्त के थपेड़ों से, चीर चीर हो गये।
भाते नहीं मन को कुछ, वह भी बदल लिए,
उलझ कर कंटकों में जो तार तार हो गये।
जीर्ण शीर्ण वस्त्र होते, हम स्वयं त्यागते,
कंटकों में फट गये, क्यों फटे विचारते?
खो गये यहाँ वहाँ, दुख हमको सालता,
समय के अन्तराल, सत्य को स्वीकारते।
बस यही जीवन का सार, कृष्ण समझा रहे,
समर प्रांगण पार्थ को यह, वासुदेव बता रहे।
सुख दुःख की अनुभूति, तुलनात्मक विचार है,
शरीर नश्वर आत्मा अमर, “मैं” ब्रह्म जता रहे।
— अ कीर्ति वर्द्धन