ऐ दिल तू तो अपना है।
दिल का दर्द इतना की जुबान से कहा तक नहीं जाता।
लाख छुपाउं की छुपाया भी तो नहीं जाता।
किए हैं दिल के घाव इतने की भूलाया भी तो नहीं जाता।
मन को लाख समझाए पर क्या सुनाऊं कुछ, पर बताया भी तो नहीं जाता।
इस दिल को मैंने एक छोटे से कोने में बसा रखा है।
जिसमें एक दरिया की तरह प्यार बनकर बहता रहता है।
ऐ दिल तुझको कभी देखा नहीं फिर भी तू दिखता क्यों है?
तू सोचता नहीं है फिर भी तू समझता क्यों है?
ऐ दिल तू तो अपना है पर अपनों ने तुझे जख्मों से भर दिया।
यहां दिल की आवाज को सुनता कौन है?
यहां सुनाने वाले बहुत हैं।
दिल को छील के भी खुश है जमाना।
अब जख्मों पर मरहम लगाता कौन है?
घाव इतने हुए कि कहना क्या नासूर हुआ।
विश्वासों के बाणों से दिल हमारा घायल हुआ।
बे कीमत लुटाया था प्रेम कभी उन पर,
सबूत मांगता फिर रहा हूं कहानी कहूं किन पर ?
दिल को बड़ा बनाकर रखता हूं तो घुन की तरह पीसा जाता हूं।
दिल की आवाज को सुनता हूं तो अक्सर धोखा खा जाता हूं।
गमजदा हूं, रुसवाईयों में जीता हूं मैं अक्सर।
यहां तो दिल के मंदिर में भी खंजर गाड़ देते हैं लोग अक्सर।
— डॉ. कान्ति लाल यादव