विपदाओं से घिरा है जीवन,
मैं फिर भी ख़ैर मनाती हूँ।
ग़ैर तो बदनाम हैं यूँ ही,
मैं अपनों से मात खाती हूँ।
सोचती हूँ बैठ कर टूटे रिश्तों की तसल्ली कर लूँ,
पर दिल को माना नहीं पाती हूँ,
जिन राहों पर कभी सब साथ थे,
मैं वो वक़्त फिर से चाहती हूँ।
सबको लगता है खुश हूँ बहुत,
मैं ख़ुदख़ुशी के शिखर पर खुदको रोज़ पाती हूँ।
यक़ीन तो बहुत था होगा सब भूल कर गीले शिकवे फिर एक होंगे,
ग़ैर तो भूल जाते हैं,
मैं अपनों की बात फ़रमाती हूँ।
— रेखा घनश्याम गौड़