ग़ज़ल
अपनी भी किस्मत क्या कहिए मयखाने में प्यासे हैं
जलते हैं हर रंग में फ़िर भी बुझती हुई शमां से हैं
हम मयखाने के वाइज़ हैं क्या जायें बुतखाने में
उनके सज़दे में हैं हम जो दिल के लिये खुदा से हैं
कितने थे अरमान हमारे गुलशन को महकाने के
अब कैसे इसको महकायें गुजरीं हुईं फिजां से हैँ
हुआ ज़माना मिटी हसरतें दिल टूटा सब कुछ बिखरा
जो हैं आज तलक हम जिँदा उनकी एक दुआ से हैँ
— डॉ. मनोज श्रीवास्तव