जिसकी ज़िंदगी-उसके सपने
याद है मुझे
अभी भी ठीक से याद है मुझे
यही कोई चार-पाँच साल की
रही होगी मेरी उमर
मेरे बाप ने एक पुड़िया खुद खायी
एक माँ को खिलाया
बापू ने काँपते हाथों से एक मुझे भी दिया
पर माँ छीनकर उसे भी खा गई
मैं दो दिन का भूखा
करता भी तो क्या!
पर मुझे बहुत बुरा लगा
मैं समझ भी नहीं पाया था
“खूब बड़ा आदमी बनना”
कहकर मेरे माँ-बाप लुढ़क गए थे
और मैं यकायक बचपने में ही
बड़ा हो गया था…..।
किसी ने मुझे अनाथालय पहुँचाया
अनाथालय ने विद्यालय
मैं पढ़ा….क्षमता जितनी पढ़ा
कागज के कई टुकड़े मिले
उपदेशों की घुट्टियाँ पिलाई गईं
ऊपर वाले पर भरोसा करना बताया गया
सही-गलत सिखाया गया
पाप-पुण्य समझाया गया
मास्टर ने भी बड़े-बड़े सपने दिखाए
मेरे जैसों ने भी साहस जगाए
अब मैं सबके सपनों की थाती लेकर
एक मुट्ठी भात
दो रोटी
कुछ नमक, कुछ प्याज
खोजने लगा………।
एक कम्पनी में नौकरी मिली
तय हुई पेट की नाप के बराबर पगार
महीने के आखिर दिन खाकर उधार
शादी की…….दो बच्चे हुए
मँहगाई बढ़ी, खर्चे बढ़े
पगार….अंगद पाँव सी अडिग
छुट्टी माँगों तो ओवर टाइम
बोनस माँगों तो गाली
इंसेंटिव माँगों तो डाँट
इंक्रीमेंट पर धमकी
मदर कम्पनी ने कई कम्पनी लगाए
मेरी झोपड़ी के छप्पर भी लड़खड़ाए
मेरे अनुभव बढ़ते गए
सपने मरते गए।
डाक्टर ने बताया ,”लंग्स, लीवर, किडनी फेल”
बच्चे रो रहे हैं कि कल रोटी कौन देगा!
बीवी सोच रही है कि बच्चों का क्या होगा!
किंतु मैं इन सबसे अनजाना
बचे हुए सपनों को खरोंच खरोंचकर
मिटाने में लगा हूँ
बच्चों को कोरे उपदेशों से बचाने में लगा हूँ
मैने मन ही मन ठान लिया है
मैं मेरे सपने बच्चों के सिर
नहीं मढ़ूँगा
जिसकी ज़िंदगी-उसके सपने।
— डॉ अवधेश कुमार अवध