गीतिका
कागज पर जब रखा हमने जलते हुए ज़ज़्बात को ।
लोगों ने उन्हें पढ़ लिया यारों उठकर आधी रात को ।।
दर्द के किस्से अपने थे पर जग ने अपने समझ लिए।
कैसे जग को अब समझाएं गहरे राज की बात को ।।
सावन की रातों में जब जब तन्हाई – घन गरजे हैं ।
रोक न पाए चाहकर भी हम अश्कों की बरसात को ।।
देख लगी जब जग के हाट में बोली धर्म -ईमान की ।
समझ न आए हो गया क्या आदम की इस जात को।।
इक दिलबर दिल को लेकर खो गया जो कहीं भीड़ में ।
उस जैसा फिर मिला नहीं कभी ढूंढे से कायनात को ।।
मुर्शिद के दर गए तो हमको मुर्शिद ने यह समझाया था ।
डगमग कभी न होने देना नेकी – बदी अनुपात को ।।
— अशोक दर्द