अक्स
दर्पण जब भी देखूं मैं, एक छवि दिखलाय,
उस छवि-सा कोई और नहीं, दर्पण मोहे बताय.
कभी-कभी वह पूछता, “क्यों रहतीं हो उदास!”
मैं चुप-सी रह जाती हूं, कहने को नहीं कुछ ख़ास!
कभी-कभी फिर पूछता, “क्यों रहतीं चुपचाप!”
मन की बात कहूं, सुने, कर लेता विश्वास!
कभी-कभी वह पूछता, “क्या खुद पर संदेह!”
नैन मूंद बैठी रहूं, सपनों में भरता नेह!
कभी-कभी फिर पूछता, “कैसे हों सपने साकार!”
शिद्दत से रहूं निहारती, दिखाए कर निर्वार!
अक्स-सा कोई सगा न मेरा, अक्स-सा नहीं मीत,
अक्स से जीवन सजे, अक्स ही जीवन-गीत.