निज चंदा की चांदनी मैं
एक ढलती शाम,आईना को किया साफ
उसने कहा देर से ही सही, आ गई पास|
आई हो अब, जब घिर आई है यामिनी
फिर भी हो रोशन है जैसे कि दामिनी|
क्यों इतना है तेरा आकुल मन
आप बैठ मेरे पास क्षण दो क्षण|
कह दे कुछ सुन ले मन की बात
मत छुपा अपने जज्बात|
परिधि से निकल अब तू बाहर
तृषा को अपनी बुझा भर भर गागर|
लगाती थी कभी तुम मोटे मोटे काजल
याद है कितने थे सारे तेरे कायल|
अब क्या हुआ जो तू हुई गामिनी
निज विधु की तो तू ही है चांदनी|
कितने भी हो रात घनेरे
चांदनी तू ही तो है बिखेरे|
बरस जा तू तृषित धरा पे सावन की तरह
बिखर जा तू धरा में मोती की तरह|
टप टप बिखरेंगे जब मोती
मानो ऐसे जैसे कि तू हंस पड़ी|
आरसी में देखा जब खुद को
ढूंढ लिया अपने वजूद को|
आ गई फिर वही मुस्कान
जिससे अब तक थी अनजान|
मृण्मई नैनो में डाला काजल
लहरा गया फिर मेरा आँचल|
जैसे की कैद पंछी को
मिल गया उन्मुक्त बादल|
— सविता सिंह मीरा