कविता

निज चंदा की चांदनी मैं

एक ढलती शाम,आईना को किया साफ
उसने कहा देर से ही सही, आ गई पास|
आई हो अब, जब घिर आई है यामिनी
फिर भी हो रोशन है जैसे कि दामिनी|
क्यों इतना है तेरा आकुल मन
आप बैठ मेरे पास क्षण  दो क्षण|
कह दे  कुछ सुन ले मन की बात
मत छुपा अपने जज्बात|
परिधि से निकल अब तू बाहर
तृषा को अपनी बुझा भर भर गागर|
लगाती थी कभी तुम मोटे मोटे काजल
याद है कितने थे  सारे  तेरे कायल|
अब क्या हुआ जो तू हुई गामिनी
निज  विधु की तो तू ही है चांदनी|
कितने  भी हो रात घनेरे
चांदनी तू ही तो है बिखेरे|
बरस जा तू तृषित धरा पे सावन की तरह
बिखर जा तू धरा में मोती की तरह|
टप टप बिखरेंगे  जब मोती
मानो ऐसे जैसे कि तू हंस पड़ी|
आरसी  में देखा जब खुद को
ढूंढ लिया अपने वजूद को|
आ गई फिर वही  मुस्कान
जिससे अब तक थी अनजान|
मृण्मई नैनो में डाला काजल
लहरा गया फिर मेरा आँचल|
जैसे की कैद पंछी को
मिल गया उन्मुक्त बादल|
— सविता सिंह मीरा 

सविता सिंह 'मीरा'

जन्म तिथि -23 सितंबर शिक्षा- स्नातकोत्तर साहित्यिक गतिविधियां - विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित व्यवसाय - निजी संस्थान में कार्यरत झारखंड जमशेदपुर संपर्क संख्या - 9430776517 ई - मेल - meerajsr2309@gmail.com