वृक्ष
मैं वृक्ष मनुज की सांसे हूँ |
वसुधा के पावन गहने हूँ |
मुझसे बहार मुझसे जीवन,
जन मन के मोहक सपने हूँ |
मेरी बाहों को मत काटो |
जंगल उपवन को मत छांटो|
सारी खुशियाँ लुट जाएंगी,
झीलों,तालों को मत पाटो |
खगकुल का मैं ही डेरा हूँ |
बरखा बसन्त का घेरा हूँ |
मैं हूँ जबतक जीवन तबतक ,
खुशियों का सदा बसेरा हूँ|
अल्लढ़ अलमस्त झरोखा हूँ |
मैं मलय पवन का झोंका हूँ |
घन मुझको देख बरसते हैं,
ऋतुओं की मोहक शोभा हूँ |
पर्वत ,नदियाँ, झीलों, झरनों, वृक्षों से धरती की शोभा |
मुझसेस वातायन मुझसे जन मुझसे ही जीवन की शोभा |
हे मानव काट न दोहन कर जीवन आंनद उजाड़ न तू ,
मत लूट न मौसम की खुशबू ,अब आन बचा भू की शोभा |
मंजूषा श्रीवास्तव’मृदुल’