हमारे पापों का परिणाम हैं आकस्मिक आपदाएं
मूड और मौसम ये दोनों ही अब ऐसे हो गए हैं कि इनका पता ही नहीं चलता। पहले बारह महीनों में कुछ-कुछ माह तय होते थे क्रमिक रूप से गर्मी, सर्दी और बरसात के। और इनका क्रम भी कुछ वर्ष पूर्व तक तकरीबन इसी तरह बना हुआ रहता था।
हाल के कुछ वर्ष में जाने क्या ऐसा अनपेक्षित अनचाहा बदलाव हो गया कि कौन सा मौसम कब टपक जाए, इसका कोई भरोसा नहीं। अब किसी भी मौसम में कोई सा दूसरा या तीनों ही मौसम सेंध मार सकते हैं। कुछ-कुछ घण्टों के अन्तराल में हर तरह का मौसम दिखने को मिल रहा है।
अनियमित मौसम, लू के थपेड़ों से लेकर हाड़ पर तीर चलाती शीत, बादलों का फटना और सब कुछ बह जाना, बेमौसम बरसात और बाढ़, बार-बार मावठों, ओलावृष्टि की धमक, भीषण गर्मी का कहर और कंपकंपाती ठंड, ऑक्सीजन की कमी, ओजोन परत का बेहाल होना, थरथर्राने वाला भूकंप और ज्वालामुखी … सब कुछ गड़बड़।
मौसम का मिजाज अब न क्षेत्रों के अनुकूल रहा है, न इंसान या और जीव-जंतुओं के। मनचला हो गया है मौसम, बदचलन हो गया है सब कुछ। अभी तक तो इतना ही हुआ है, आगे-आगे देखते जाईये क्या-क्या नहीं होने वाला है।
इंसान की बदचलनी का यही सब कुछ माहौल चलता रहा तो वह सब कुछ हो ही जाने वाला है जिसकी कल्पना करना भी हमारी रूह को कंपा देने वाला है। केदारनाथ की त्रासदी को हुए अभी ज्यादा समय नहीं हुआ है। ऐसी कितनी ही त्रासदियों के साक्षी हम हैं।
जिन पंच तत्वों से हमारी प्रकृति बनी है, जिस बुनियाद पर धरती टिकी है, उसकी रक्षा करना हमारा फर्ज है। हमारा कर्त्तव्य यह भी है कि पुरखे हमारे लिए जो कुछ छोड़ गए हैं उसकी रक्षा करें, सदुपयोग भी करें और आने वाली पीढ़ियों का ख्याल भी रखें। मगर हमने अपनी इन मर्यादाओं को भुला दिया है। हम चाहते हैं कि सब कुछ हमारे हक़ में लील लें, बाद में क्या हो, किसने देखा।
प्रकृति के आँगन में रहते हुए मौज-मस्ती लूटने की बजाय हमने प्रकृति को ही लूटना शुरू कर दिया है। पहाड़ों को मसल कर मैदान बना दिया है। नालों और नदियों का अस्तित्व मिटाने के सफर पर हम चल ही पड़े हैं, पेड़ों और जंगलों से हमारा रिश्ता खत्म सा ही हो गया है। जिस पैमाने पर बस्तियों का सफर शुरू हुआ उसने वनों-जंगलों-पेड़ों का सफाया किया है।
‘जियो और जीने दो’ के सिद्धान्त के दावे और उद्घोष करने वाले हम खुदगर्ज और शोषक लोगों ने अपने घरौंदों के चक्कर में वन्य जीवों, पशु-पक्षियों और हमारे सहचरों के बसेरों को उजाड़ कर रख दिया है और चाहते हैं जंगलों पर भी हमारा कब्जा हो जाए।
जमीन के टुकड़ों को हम टकसाल मान बैठे हैं और अपना जमीर तक भुला बैठे हैं। एक जमाना था जब पेड़ों की डालियां आसमान को छूती हुई बादलों का हाथ पकड़ कर जमीन पर ले आया करती थीं। आज पेड़ नहीं उनकी जगह मोबाइल टॉवरों का कब्जा है। कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जो टॉवरों के जंगल की तरह न दिखता हो। पंचतत्वों का संतुलन हमने समाप्त कर दिया है। यही कारण है कि प्रकृति अब हमने रूठी हुई है।
हम हर साल विश्व पर्यावरण दिवस मनाते हैं। इस दिन सारे के सारे लोग पर्यावरण बचाने के लिए समर्पित प्रयासों के संकल्प लेते हैं, गोष्ठियों और विभिन्न आयोजनों में गला फाड–फाड़कर चिल्लाते हैं और वादे तो ऐसे कर लेते हैं जैसे कि आज ही के दिन पर्यावरण चेतना का कोई चमत्कार हो ही जाने वाला है।
खूब सारे लोगों का जन्म ही लगता है पर्यावरण चेतना पैदा करने के लिए ही हुआ है। फिर इनके समानधर्मा लोगों की भी कहाँ कोई कमी है। पेड़ लगाने की बातें की जाती हैं। पिछले कई दशकों से यही हो रहा है। कितना अच्छा होता कि ये लोग गलाफाड़ भाषणों और संकल्पों की बजाय कम से कम इस दिन एक-एक पेड़ ही लगाते। ऐसा होता तो आज हमें पर्यावरण दिवस मनाने की आवश्यकता ही नहीं होती।
मगर हकीकत यह है कि हम इतने नालायक होते जा रहे हैं कि खुद कुछ करना नहीं चाहते। हमारी सदैव मंशा यही रहती है कि हम निर्देशक की भूमिका में रहें और दूसरे लोग मजदूरों की तरह काम करते रहें।
आज पर्यावरण का प्रदूषण बढ़ रहा है। बाहर और भीतर सब तरफ प्रदूषण का माहौल है। इंसान का दिल-दिमाग भी प्रदूषित है, आबोहवा भी प्रदूषित है और सब कुछ उलटा-पुलटा होता जा रहा है। पर्यावरण प्रदूषण के लिए हम स्वयं जिम्मेदार हैं।
यदि हम सभी लोग अपनी मर्यादाओं में रहें, समाज और क्षेत्र तथा प्रकृति के लिए अपनी ड्यूटी के प्रति वफादार रहें, जो जिस काम के लिए मुकर्रर है वह अपने कामों को पूरी ईमानदारी के साथ करें और मानवीय संवेदनाओं, सेवा व परोपकार के सामाजिक सरोकारों को अपने स्वार्थों से ऊपर रखें, तो कोई कारण नहीं कि पर्यावरण का संतुलन इतना बेहतर हो जाए कि हमें पर्यावरण के नाम पर सालाना आयोजनों की दरकार ही न रहे।
पर्यावरण रक्षा के लिए आयोजनों, वादों, संकल्पों, भाषणबाजी और नौटंकियों से कहीं ज्यादा जरूरत अपने मन को साफ-सुथरा रखने की है और समाज तथा क्षेत्र के लिए जीने का ज़ज़्बा पैदा करने की है। एक बार हमारे मन-मस्तिष्क का पर्यावरण ठीक हो जाए तो फिर परिवेश को सुधारना कोई मुश्किल नहीं है। समस्या वहाँ ही है जहाँ हम सिर्फ लच्छेदार भाषण तो झाड़ना चाहते हैं, पर्यावरण असंतुलन पर अभिनय करते हुए घड़ियाली आँसू बहाकर औरों की सहानुभूति तो लूटना चाहते हैं मगर करना कुछ नहीं चाहते।
आज का दिन हमें यथार्थ का बोध कराने आया है। यह दिन चीख-चीख कर यह कहना चाहता है कि अब भी समय है कुछ करो, वरना सब कुछ तबाह हो जाएगा। जब पर्यावरण ही न रहेगा तो हमारा हश्र क्या होगा, इस बारे में हमें सोचने की आवश्यकता नहीं है।
विश्व पर्यावरण दिवस पर हार्दिक शुभकामनाएँ ..
–– डॉ. दीपक आचार्य