मैं और मेरा स्वयं
मैं और मेरे स्वयं के संग
चलती अक्सर तनातनी|
वह क्यों कहती है हमसे
ना करना अब मनमानी||
लिखने को कभी जो बैठे,
कलम हठीली हो जाती मौन,
भावनाएं मन में घूमती रहती,
शब्द ना जाने हो जाते गौण|
अंतर्मन में भीषण द्वंद,
पर भला यह समझे कौन|
वह कहती क्यों करें विश्वास
बना लेती हो पल में किसी को खास|
क्यों करती तो इतनी नादानियां
बांध लेती क्यों सब से यह आस||
सुन तो मुझको भी है सारी खबर
क्यों समझी तू हमें बेखबर|
पढ़ लेती हूं सबके मन को
फिर भी करती उनकी कदर||
मैं भी इतनी नहीं हूं अनजानी
समझती हूं किसमें है कितना पानी|
चुन लेती हूं फिर राहें नई
पर हां थोड़ी जरूर हूं स्वाभिमानी||
बस तू देती रहना दस्तक
कुटिलता कपटता ना पहुंचे हम तक|
— सविता सिंह मीरा