ग़ज़ल
प्यास की बेचैनियां पर था नहीं पानी नसीब,
एक दरिया बह रहा था तिश्नगी के वास्ते।
सिर्फ सूखे ठूंठ जैसी जिंदगी का क्या करें,
चाहते हैं हम हरापन जिंदगी के वास्ते।
धूप,आंधी, बारिशों की साजिशों को झेलना,
यूं बड़ी दुश्वारियां सब खिड़कियों के वास्ते।
दोस्ती भी, दुश्मनी भी जंग -ए- मैदान में,
हम लड़े हैं हर किसी से रोशनी के वास्ते।
वो फ़कीरा मानता खुद को मसीहा वक्त का,
बांटता है नेमतें अच्छे दिनों के वास्ते।
— वाई. वेद प्रकाश