मौत – सबसे बड़ा व्यंग्य
दुनिया में लोग मृत्यु को रहस्य कहते है। एक व्यंग्यकार की दृष्टि से मुझे तो यह संसार का सबसे बड़ा ‘ व्यंग्य ‘ लगती है। कठिन व्यंग्य! कठोर व्यंग्य!! निर्मम व्यंग्य!! जिसमें हास्य लेशमात्र भी नहीं है। अच्छे – अच्छे रणबाँकुरे, लक्ष्मीपति, धन्वन्तरि, सम्राट और न जाने कौन – कौन से महावीर सब इसके सामने घुटने टेक चुके हैं। सारी योजनाएँ धरे के धरे रह जाते हैं। आशिक मियाँ आँखों में मेहबूबा का चित्र बसाकर बुलेट पर झूमते-गाते चले जा रहे है-“मेरे सपनों की रानी कब आयेगी त।”। रानी तो नहीं आती सामने से आता ट्रक कुचल कर चला जाता है, सपनों की रानी को सदा के लिए पलकों में मूँद कर। दादा जी प्लानिंग है कि पोते की बहू का मुँह देखकर कूच करेंगे, लेकिन मौत बाएँ से ओवरटेक कर दादा जी बायपास से ले गयी। पिता जी ने डायबिटीज़ के कारण मीठा ज़बान पर रखना छोड़ दिया, इधर बेटे ने इतनी कड़वी बातें कही दिल ने धड़कन छोड़ दिया। ज़िंदगी भर सासू माँ को जली-कटी सुनाकर दिमाग खानेवाली माँ की दिमाग की नस उसकी बहू ने परेशान कर समय से पहले फाड़ दी। रिश्वत के नोटों से महल बनानेवाला अधिकारी निश्चिंत था कि ‘काली लक्ष्मी’ अवसर पड़ने पर जान बचा लेगी लेकिन उसका उपयोग कर खरीदी गई दवाएँ भी नकली निकली और भाई साहब की काली कमाई धरे की धरे रह गई। इधर महात्मा जी भक्तों को मौत का दर्शन अपने प्रवचनों में समझाते रह गये, उधर मृत्यु शोक का आज्ञा-पत्र लेकर पहुँच गई। सयकार को यकीन था कि नयी योजनाएँ उसको फिर सत्तासुंदरी से गरबाँही करवाएगी लेकिन विपक्षियों के छद्म टोटके ज्यादा प्रभावशाली निकले। सरकार का अंतिम संस्कार हो गया। बस सीमा का प्रहरी अपनी मौत को लेकर हर साँस के प्रति कृतज्ञ था कि यही उसकी आखरी साथी है लेकिन दुश्मन की एक गोली ने उसे अमर कर दिया।
आजकल मौत ने भी अपनी चाल बदल ली है। राजकपूर गाते – गाते निकल गये कि “हाथी है न घोड़ा है, वहाँ पैदल ही जाना है।” आत्मा नाम का जंतु अब आराम पसंद और विलासी हो गया है। आधुनिकीकरण की विलासिता ने आत्मा का चरित्र भी बदल दिया है। आजकल वह मेकअप भी करती है फैशन भी करती है। रंगबिरंगी से अधनंगी पोशाकों की भी शौकीन है। पब-डिस्कों में नशा करके झूमती भी है और भूने हुए माँस के साथ ‘सुडौल-नरम कच्चा’ माँस भी खाती है। इन दिनों आनेवाला भले ही अकेला आये लेकिन जाता जत्थे में है सबका साथ सबका विकास हो रहा है। आत्माएँ सामूहिक प्रयाण कर रही है – एक बार में दो से लेकर दो हजार तक। अकेले सफर करना पसंद नहीं उसे। कुछ को ट्रेन की रफ्तार पसंद हैं तो कुछ हवाई-यात्रा की शौकीन। अपनी कार हो तो सपरिवार, नहीं तो बस की सवारी भी बुरी नहीं। ज़िदगी के तूफान और चक्रवातों से भले ही बहादुर जूझ ले लेकिन मौत के सैलाब हजारों को नानी याद दिला देते हैं। डनलप के गद्दे पर सोनेवाली आत्माओं को मौत भूकंप माता बनकर एक झटके में धरती अपनी गोद में समा लेती है। आत्माओं के सामूहिक प्रयाण को आतंकवादी और नक्सलवादी भी समय – समय पर अपना परवाना देते रहते हैं। बस सरहद पर डटा सैनिक अपने खून के अमिट तिलक से मातृभूमि का अभिषेक करता रहता है और गाता है-तेरी मिट्टी में मिल जावाँ।
कम आयु में मरनेवालों की मृत्यु को भक्त लोग ‘अकाल मौत’ कहते हैं। अजीब बेवकूफ हैं। ऐसा लगता है मरनेवाले की साँसों का अकाउंट डिटेल इनके पास था कि बेचारा अस्सी साल जीने वाला था अठारह में चल बसा। अब इन महानुभावों के अकाउंट में जो बासठ वर्ष छोड़ गया है, उसका क्या करें-चाँटे? अब ये उसकी अतृप्त आत्मा की शांति के लिए ज़माने के धार्मिक अनुष्ठान करवाते हैं। ये अनुष्ठान मरनेवाले की आत्माओं की शांति के लिए नहीं अपनी आत्मा की शांति के लिए करवाये जाते हैं। डर के मारे कि समाज क्या कहेगा? सामाजिक तत्व इन्हें असामाजिक नहीं होने देते भले ही मरनेवाला शराब के नशे में धुत रहकर ऐय्याशी, रिश्वतखोरी, कालाबाजारी, हत्या-डकैती-चोरी जैसे ‘असामाजिक पुण्य’ करता रहा हो!!? ये भी हमारी विकृति है, जो संस्कृति बन गई है।
मृत्यु जीवन का अंतिम पड़ाव है। सभी संस्कारों में अंतिम है। न जाने कौन सा पल और साँस अंतिम हो। निश्चित और अटल! जिसके बारे में हम कोई प्लानिंग नहीं करते। कोई योजना नहीं। कोई बजट नहीं। निश्चितता के प्रति इतनी प्रगाढ़ अनिश्चिंतता? वाह! मौत से बड़ा ‘व्यंग्य’ वास्तव में नहीं हो सकता। इसलिए-
“कोटि करम करे कोई पर, इससे ना बच सकता है
मृत्यु के माथे पर अपना, नाम अमिट लिख सकता है
करे फिदा जो जान वतन पे, उसके गीत ये गाती है
हो बहार – गरमी या पावस, मृत्यु गीत सुनाती है।
सुबह-शाम-दिन-रात-दुपहरी, कोई छूट ना पाती है।”
— शरद सुनेरी