जब प्यार यहां पर होता तो
परलोक सिधारा इश्क यहां, गुनाह धरा पर टिके हुए
नादान बहुत तुम लगते हो, अभी राह में रुके हुए
यहां तारे कितने टूटे हैं, तेज रोशनी थी जिनकी
अर्श पे फर्क कोई पड़ा, नाहक तुम हो झुके हुए
अब प्रीत यहां की रीत नही, फरेब है फलफूल रहा
अमराई वाले दरख्त सभी, हैं बाग के साथ बिके हुए
अब सावन आता जाता है, अब झूलों का दौर गया
इक पैंग लगा ली ख्वाबों में, जिस पर तुम हो मिटे हुए
जब प्यार यहां पर होता तो, न होती क़ज़ा सजा यहाँ
हर ‘राज’ के अखबार पढ़ो तुम, पन्ने जुर्म से पटे हुए
मौसम की कहानी है सारी, जो लिए रवानी फिरते हो
ऋतु आती जाती रहती हैं, सर्दी से तुम हो सिमटे हुए
राजकुमार तिवारी “राज”
बाराबंकी उ0 प्र0