ग़ज़ल
दो चार अश्क आंखों से बहा के बैठ गया
मेरे अपनों से ही मैं चोट खा के बैठ गया
जिसका वादा था सारी उम्र साथ देने का
बुरे वक्त में वो मुँह छुपा के बैठ गया
फिर उसके बाद नींद रात भर नहीं आई
तेरा ख़याल जब पहलू में आ के बैठ गया
उनकी आदत थी सबको मुस्कुरा के मिलने की
मैं इतने ख्वाब खामखा सजा के बैठ गया
सवाल करने लगा आईना ही मुझसे जब
मैं अपने आप से नज़रें चुरा के बैठ गया
— भरत मल्होत्रा