कहानी

कहानी – ज़िंदगी की लहरें

22 मार्च 2020 को पूरे भारत में जनता कर्फ्यू का आदेश जैसे ही हुआ, उसके विचारों में कुछ उथल-पुथल हुई, यह उथल- पुथल पूरे रविवार चलती रही कि शायद अब वह घूमने निकल नहीं पाएगा। वह पहले तो अपने घर से दूर जाना चाहता था और दूसरा उसे फिर से पहाड़ बुला रहे थे। वह तो पहले से ही मार्च के अंतिम सप्ताह में हिमाचल भ्रमण का अपना प्रोग्राम बनाता आया है। पर आखि़र कैसे जा सकता है। यह समय समाचारों के चंगुल में फँसने का नहीं था। उसने रात को ही अपने टैंट व छोटा स्लीपिंग बैग मोटरसाइकल पर बाँधा और सारे सामान को अपने ट्रैकिंग बैग में डालकर तड़के ही परिवार को छोड़कर निकल गया। क्या उसका निर्णय सही होगा या गलत, पर वह निकल चुका था। वह एक किस्म से भागा था।
अपने दिमाग में बिठाए नक्शे के अनुसार उसे उसी जगह पर जाना था जहाँ वह पहले भी जा चुका था। यही सबसे सुविधाजनक जगह थी जहाँ वह कुछ दिन बिता सकता था, एकांत का सहारा बन कर, बस उफनती नदी की तरह उसके विचारों का ज्वर उसके दिमाग को अशंात करता जा रहा था। वह मंडी के अनछुए क्षेत्रों में तीन दिन मोटरसाइकल दौड़ाता रहा। 24 मार्च 2020 शाम को 21 दिन का लॉकडाउन घोषित हो गया। अब वह फँस चुका था। उसे तो अपने आप को समझाना होगा कि शायद अब तुम्हें लोग पसंद न करें। क्योंकि उन्हें तुम भी वैसे ही विदेशी नज़र आओगे, जिन्हें तुम भी अपनी कहानियों में उनके लिए संवेदना के सवांग रचते थे और विदेशी पर्यटकों, आधुनिकतावाद को उन वादियों में दुबके, पहाड़ों के बीच बसे गाँव वालों के लिए अभिशाप मानते थे, और मानते थे कि ये पर्यटक, ये आवागमन के साधन, ये सड़कों का जाल उन भोले भाले गाँव वालों के लिए नए स्वप्नों की बाढ़ लाएँगे जिसमें लोगों की अपनी परंपराओं की झोंपड़ियाँ बह जाएँगी।
अब जब पूरे देश में लॉकडाउन चलेगा तो फिर उसका सारा चिंतन किसी काम का नहीं रहेगा। जिन भोले भाले पहाड़ों पर बसे देहातीआंे से मिलकर उसे आनंद आता था, वह शायद उसे अब पसंद नहीं करेंगे, वे तो शायद अपने पशुओं के लिए घास भी नहीं काटेंगे, पशुओं को भी कम चारा मिल रहा होगा। भेड़ बकरियों को चराने वाले अपने घरों से निकले होंगे। अगर ऐसा ही चरवाहा उसे कहीं रास्ते मे मिल जाए तो वह अपना मोटरसाइकल किसी एक कोने पर खड़ा करके उसके साथ चरवाहा बनने को तैयार हो जाएगा। ठीक वैसे ही हुआ। वह वापिसी में चिंता को अपने कंधे पर उठाए भाग रहा था कि भेड़ बकरियों के जमावड़े ने उसके मोटरसाइकल के कदम रोक दिए।
वह मोटरसाइकल से उतरा और गद्दी ‘भेड़ बकरियों को चराने वाला चरवाहा’ से बात शुरू करने के इरादे से पूछ बैठा, ‘‘ भाई कहाँ जा रहे हो?’’
गद्दी मुस्कुराया और बोला, ‘‘गद्दी लोग हैं चरागाहों की खाक ही छानेगे। वैसे हम पराशर की ओर जा रहें हैं सप्ताह भर में वहाँ पहँुचेगे ’’
‘‘भई परदेसी, तुम कहाँ के रहने वाले हो?’’
‘‘उसने बड़ी शांति से जवाब दिया, ‘‘चाचू हिमाचल का ही हूँ, हमीरपुर से आया हूँ, बस पहाड़ की ओर निकल रहा था।’’
‘‘अरे वह तो ठीक है, पर तुम यहाँ तक आए कैसे, पूरे पहाड़ इस वक़्त मौनी बाबा बनने वाले हैं और तुम अपनी शोर वाली गाड़ी लिए दौड़े जा रहे हो।’’
‘‘बस चाचू, इन पहाड़ों में मुझे मज़ा आता है, ये मुझे बुलाते हैं मेरे सपनों में आते है, इनका मोह मुझे घर पर बैठने नही देता।’’
‘‘अच्छा वो तो ठीक है पर इन पहाड़ों को भी जहरीली हवा से डर लगता है, लॉकडाउन के समय यहाँ के लोग भी तुम्हें पसंद नहीं करेंगे, वे तुम्हें दूषित समझेंगे। चुपचाप घर पहुँचो।’’
घुमकड़ी गद्दी को देखकर उसके मन ने पासा पलटा।
‘‘तो फिर चाचू, अब मेरा क्या होगा, मैं तो यहाँ तक निकल आया हूँ, वापिस जाना भी मुश्किल, अगर आप चाहे तो मैं आप के साथ, भेड़ें चराता हुआ चल पड़ता हूँ, मेरे पास अपना स्लीपिंग बैग और टैंट भी है बस कुछ पल तो मुझे अपने साथ मिला लो।’’
गद्दी हँस दिया। वह अपनी जगह पर रुक गया, उसके साथ वाला लड़का शायद उसका बेटा होगा। वह भी उसके करीब आकर खड़ा हो गया। गद्दी का लड़का लगातार उसकी बातों को सुनकर मुस्कुरा रहा था। उसका बापू बोला, ‘‘अरे बाबू, तुम हमारे साथ नहीं चल सकते, तुम कहाँ झाड़- झकाड़ों में घूमोगे, और थोड़ी ही देर में तुम थक जाओगे, अभी हम यहाँ हैं तो शाम तक उस सामने वाली पहाड़ी की चोटी पर होंगे, तुम अपना कोई हल ढँूढो।’’
‘‘अरे नहीं चाचू, मुझे ऐसे न छोड़ो, मैंने तुम्हारें बारे में कई कहानियाँ लिखी हैं और मेरे मन में इच्छा थी कि मैं कुछ दिन गद्दियों के साथ बिताऊँ, मेरे गाँव में भी आते रहें हैं गद््दी। हमारे खेतों में बैठते थे, वे पालमपुर व बैजनाथ इलाके के थे।’’
इस बात के बाद चाचू ने थोड़ी हामी भर दी थी। ‘‘अच्छा चाचू, सिग्रेट पीते हो।’’
उसनेे अपनी जेब से चमचमाती डिब्बी निकाली और सिग्रेट चाचू ने सुलगा ली। उसके मुँह से काला धुँआ कुछ पल छटपटा कर बाहर निकल रहा था। तब तक उसका लड़का भेड़ों को सीटी बजाकर और अलग तरह से पुकार रहा था। ‘‘वैसे एक आधे दिन के लिए साथ में चलना है तो चल पड़ो।’’
‘‘चाचू तुम्हारा नाम क्या है? और तुम्हारे लड़के का।’’
‘‘मेरा नाम शोभराज है और ये मेरा बेटा चमन है, और हमारा बंदा नीचे वो देखो दूर पेड़ के पीछे, वे मेरा छोटा भाई है। हम अभी सड़क से नीचे उतरते हुए इस पहाड़ से उतरकर नीचे ऊहल खड्ड को पार करके, सामने पहाड़ की ओर निकलेंगे, इस सड़क पर हम आगे नहीं बढ़ सकते। यह हमारा इलाका नहीं है। वैसे भी अब हम अपने इलाके की ओर से जा रहे हैं, पाँच सात दिनों में हम सामने पराशर की धार की ओर होंगे।’’
‘‘बस पाँच- सात दिन में मेरा भी मन भर जाएगा।’’
‘‘अरे पाँच सात तुम नहीं रह पाओगे, तुम्हारे पाँवों में छाले पड़ जाएँगे।’’
‘‘वैसे एक बात है तुम्हें घर वालों ने आने कैसे दिया! वे क्या तुम्हारी फिक्र नहीं करते हैं?’’
‘‘मैं घर से लड़कर आया, इतना लड़कर कि वे मेरा चेहरा भी नहीं देखना चाहते थे।’’
‘‘तुम्हारा यह सामान घोड़े पर लाद देते हैं वरना तुम तो अभी ही थक जाओगे।’’
‘‘चाचू भला हो तुम्हारा वैसे अब तक कई जगह पर मैं टैªकिंग कर चुका हूँ, पर यह सामान तो लगभग मेरे दोस्त ही उठाते रहे हैं, पैदल मैं बिना सामान के गया हूँ। अभी – अभी हमने लाम डल की यात्रा शाहपुर और सल्ली गाँव से पैदल की थी।’’
‘‘अच्छा यह तो सब ठीक है।’’ और फिर चाचू ने ज़ोर से सीटी बजाई। ‘‘तुम हमारे साथ रहना, हाथ में कोई डंडा ले लो, और जहाँ बकरियाँ चरने लगे तब, थोड़ा बैठकर आराम कर लिया करो। फ़ोन है न साथ ज़रा ख़बरें भी पढ़ लिया करो, क्या हालात बने हैं दुनिया के, वैसे तो हमारी अपनी ही दुनिया है।’’
‘‘हालात क्या चाचू, बस यहाँ से चले थे, वहीं वापिस आ रहे हैं लोग। मुझे तो उन पर तरस भी आ रहा है और हँसी भी, जिस माटी को छोड़कर भागे थे, विदेशी बन गए थे, अब तड़फ रहे हैं अपने घर लौटने को, बहुत बुरे हालात में हैं लॉकडाउन ने वो सब कर दिया जो ये माटी चाहती थी।’’
‘‘अरे भाई ये प्रकृति और ईश्वर का किया कमाल है, आधुनिकता के रंगों में डूबती दुनिया पीछे कैसे हट सकती है, तुम देखना बस ज़रा उस बीमारी को ठीक होने दें, वो फिर लौट आएँगे। चाचू मैं तो चाहता हूँ कि दुनिया फिर से लौट जाए 30 वर्ष पहले, अब जब भी मैं कुछ लिखने बैठता था तो बस उसी 30 वर्ष के पहले की दुनिया में जीए किस्सों के याद करके उन्हें अपनी कहानियांे में जोड़कर मुझे बड़ा आत्मिक आनंद मिलता था।’’
शोभू ने ज़ोर से भेड़-बकरियों को सीटीनुमा आवाज़ में पुकारा और एक खुली जगह पर उकडू बन बैठ गया।
‘‘आओ जरा आराम कर लो, सिग्रेट तो निकालो ज़रा, बड़ी मज़ेदार है तुम्हारी सिग्रेट, वैसे अब जब ख़त्म हो जाएगी तो फिर तुम्हें कुछ न मिलेगा, हमारे पास हुक्का है, वहीं गुड़गुड़ा लेना।’’
‘‘सब चलेगा चाचू, बस अब मुझे अपना ही समझो। मैं चाहे एक अच्छी सुविधाजनक ज़िंदगी जी रहा हूँ, पर मैंने अपनी यात्राओं से यही सीखा है कि ज़िंदगी में कई परिस्थितियाँ बनती हैं, जो तुम्हारे सारे उसूलों को रौंद देती है। वैसे उसूल इंसान के होने भी नहीं चाहिए, मैं तो यही मानता हूँ।’’
‘‘तुम बड़े खास आदमी हो, अब मुझे लग रहा है कि मैंने तुम्हें साथ लेकर कोई ग़लती नहीं की।’’
‘‘आपका तहे दिल से धन्यवाद चाचू, अगर मैं जिं़दगी की यह ज़िद्द जीत गया तो सदा तुम्हारा अहसानमंद रहूँगा, पर बस आप लोग मुझे बीच रास्ते में ठुकरा मत देना, मैं खुद ही छोड़ दूँगा, जब मेरी तसल्ली हो जाएगी।’’
शोभू उठा और घोडे़ पर लटके प्लास्टिक के छोटे कनस्तर से पानी पीकर उसे भी पानी मिलाने की पेशकश की।
‘‘वैसे भी चाचू अब अगर तुम अपने साथ नहीं रखते तो शायद मेरा बुरा हाल होता, लोग मुझे अपनी जगहों पर फटकने न देते, वे मुझे घूरते। वे मेरा साजो सामान देखकर मुझे विदेशी समझते या फिर उनमें से कोई मुझे कहीं भी टेंट में सोया देखकर पुलिस को इत्लाह कर देतेे और फिर आगे क्या होता, यह मुझे तब ही पता चलता।’’
शोभराज ने चमन को कोई इशारा किया और वह भेड़़ों को एक ओर खुली जगह कर आराम करने के संकेत देने लगा।
चमन भेड़ों को हाँक कर एक जगह पर इकट्ठी करके मेरे करीब आकर बोला, ‘‘भाई जी, क्या आप सचमुच में ही हमारे साथ रहोगे? वैसे हमें मज़ा तो बहुत आएगा, पर कहीं पुलिस या किसी ओर ने पूछ लिया तो फिर तुम्हारा क्या परिचय देंगे?’’
‘‘बोलना मैं तुम्हारा रिश्तेदार हूँ और अब मुझे रखा है चाहे दिहाड़ी पर बोल देना, या फिर मदद करने वाला।’’
‘‘पर भाई जी आपका पहनावा थोड़ा अच्छा है।’’
‘‘कोई बात नहीं चमन, तुम अपना गद्दी कोट मुझे दे दो और मेरी जैकेट तुम डाल लो।’’
उधर शोभू हँसने लग पड़ा, ‘‘अरे इस लेखक बाबू को सचमुच का गद्दी बना दोगे तुम चमन।’’
‘‘अच्छा जो भगवान चाहे, वैसे ही होगा और संजय ‘लेखक’ अपनी जैकेट उतारने लगा। ‘‘रहने दो संजय बाबू, इसका कोट तुम नहीं डाल पाओगे, भेड़ों की बदबू आएगी तुम्हें और तुम कुछ ही देर में भाग जाओगे। तुम जैसे हो वैसे ही रहो, ये हमारा ही इलाका है कोई पूछेगा तो देख लेंगे। वैसे भी एक दो दिन में तुम्हारी हालत हम जैसे हो जाएगी, फिर कौन गद्दी और कौन शहरी।’’
‘‘ठीक कहते हो शोभू भाई, मैं अब आपके आसरे ही हूँ वैसे भी मैंने जिं़दगी में कभी सोचा था कि मैं कुछ दिन गद्दियों के साथ बिताऊँगा। वैसे मैं अब वापिस नहीं जा सकता क्योंकि जो लोग पैदल जा रहे हैं उन्हें पकड़ कर अलग थलग करके रखा है, शायद अब मेरे हालात देखकर उन्होंने मुझे पकड़ लिया तो फिर मुझे बाकी के दिन जेल की तरह किसी स्कूल या कॉलेज के क्वारटीन होकर कमरे में रहना पड़ेगा। उससे अच्छा है कि आपके साथ रहूँ, मुझे यहाँ बहुत अच्छा लग रहा है, और बहुत मज़ा भी आ रहा है। मेरी आत्मा इससे प्रसन्नचित है।’’
चमन ने प्रश्न किया, ‘‘क्या सचमुच ही ऐसा हो रहा है।’’
‘‘हाँ भाई चमन, बाहरी राज्यों के बहुत से मजदूर दिहाड़ीदारों ने हिमाचल को छोड़कर पैदल ही चलना शुरू कर दिया, बीच में सरकार भी चौकन्नी हो गई और जो उन्होंने स्कूल कॉलेज या पंचायत भवन खाली करवा दिए हैं, उन्हें वहाँ रखकर कानून का पालन करवाया जा रहा है।’’
‘‘वाह भई! बेचारे अब तो पछताते होंगे क्योंकि वहाँ भी तो कैद ही हैं। बस अब कौन सुने उनकी। तभी भाई, तुम भी अब डर गए हो।’’
‘‘बिल्कुल ठीक कहा चमन भाई, अब तुम चाहे मेरी हालत पर तरस खाओ या फिर मजे़ लो, पर मैं अब तुम्हें छोड़कर भाग नहीं सकता। मेरी मजबूरी बन गई है। बस यह अब आपकी मानवता की परीक्षा है और साथ मेरे साहस और मन में छिपी किसी इच्छा के पूर्ण होने का समय।’’
चमन ने भेड़़ों को दो- चार आवाज़ें दी और वे लोग फिर भेड़ों के पीछे- पीछे बढ़ चले। ऊहल नदी का दृश्य उनकी आँखों के सामने था। आज रात हम इसी नदी के किनारे डेरा डालेंगे। वहाँ एकांत भी होगा और साथ में इस ओर कोई फटकता भी नहीं। शाम के इंतजार में भटका मुसाफिर अब गद्दी चरवाहा बनकर पीछे-पीछे भटक रहा था। अब चाहे वह इसे भटकना समझे या फिर अपना जुनून, पर उसके लिए कोई और पगडंडी इस धरा पर नहीं थी। यहाँ तो बस झाड़- झकाड़ांे की फैली दुनिया थी, यहाँ उबड़-खाबड़ रास्ते थे। यहाँ घासनियाँ थी, यह गरीब गद्दी लोगों के एहसान के नीचे दबने की दुनिया थी। यह आज्ञानुसार चलने का पथ था। यहाँ अपने अस्तित्व को मिट्टी में रोंदने सा अहसास था। उसके नए व्यक्तित्व के उगने का समय था। काम, क्रोध, मोह, लोभ व अंहकार के ऊहल नदी के स्वच्छ जल में डूबने का समय था। उसके मन में किसी वन भिक्षु की तरह असंख्य विचार उभरने लगे थे, लेकिन जब वह थक जाएगा तो उसके लिए वापिस भाग जाने का रास्ता छोटी पगडंडी से बड़ा और साफ़ होता जा रहा था।
ऊहल नदी के साफ जल के किनारे एक खुली जगह पर उनका डेरा लग चुका था। सभी भेड़ बकरियाँ व्यवस्थित आराम फरमाने लग पड़ी थीं। चमन ने अपने घोड़े पर लदे सामान को खोलकर अलग कर लिया था। ‘‘मौसम साफ़ है, हमें तिरपाल लगाने की ज़रूरत नहीं हैं पर आज तो मैं तुम्हारे टैंट में सोऊँगा।’’
चमन के मन में टैंट में सोने का कोतुहल था, और इधर भटके मुसाफिर के लिए एक अलग सा अनुभव होने जा रहा था। इससे पहले तो जितनी भी यात्राओं में गया था तो ज़्यादातर खाने का सामान पहले से ले गया था। चमन ने पोलीथीन मे लिपटे सामान को एक-एक करके सामने रख लिया था। प्याज, दाल, चावल, गेहूँ का आटा, नमक, लाल मिर्च और तेल की बोतल दराट इत्यादि।
‘‘अच्छा चमन भाई, मैं क्या काम कर सकता हूँ?’’
‘‘तुम भई पानी की कैनियों को नदी से भर कर लाओ, उसके बाद हम दाल बनाएँगे, मैं तब तक लकड़ियाँ इक्ट्ठी करता हूँ।’’
काले आसमान में टिमटिमाते तारों के नीचे ये तीन लोग आराम फरमाने लगे थे। चमन एकदम से उठा और बकरियों को बाड़ के बाहर रोकने के लिए दौड़ा। फिर थोड़ी शांति हुई तो चमन और संजय ने टैंट लगा लिया। ‘‘देखो चमन, ये है हम शहरियों का जुगाड़, यह आसमान है रात का हमारा और हमारे ज़मीन पर रेंगते कीड़े- मकोड़ों से बचाने वाला।’’
शोभू ने अपने हुक्के में चिलम लगाई और गुड़-गुड़ करते बोला, ‘‘भाई लेखक बाबू लोग अब हवा में उड़ने लग पड़े हैं तो कभी तो ज़मीन पर आना ही होगा। हमारे देवता भी 42 दिनांे का प्रवास करते हैं तब कोई गाँव मंे न संगीत सुनता है, न फोन, न टीवी देखता है। यह 42 दिन का प्रवास एक किस्म से हमें भी लॉकडाउन कर देता है। मेरे दादा कहते थे कि ये पृथ्वी को देवताआंे द्वारा बुरी शक्तियों से निजात दिलवाने के लिए देवताओं द्वारा जप तप स्वर्ग मे होता था। और लोग सारे काम छोड़कर इसकी प्रार्थना करते थे। हमारे गाँवों का दिनचर्या का शोर देवताओं की स्वर्ग की तपस्या में बाधा न डाले इसलिए इस परंपरा का निर्वाह बड़ी आस्था से होता था। मुझे लगता है कि अब ऐसा ही हम पृथ्वी के लोगों को करना चाहिए, यह हर देश में होना चाहिए। हमारे देवता हमें बहुत कुछ समझाते हैं पर हमारी बुद्धि भ्रष्ट होती जा रही है।’’
शोभू, चमन और संजय भुभु जोत के पहाड़ की तलहटी पर अपनी भेड़ो संग रेंगते जा रहे थे। संजय बाबू के शरीर की चर्बी पिघल चुकी थी। चेहरे पर लंबी दाड़ी उग आई थी। पेट अंदर को सिकुड़ चुका था, यह यहीं बढ़ा हुआ पेट था जिसे अंदर करने के लिए बाबू महाशय शहर के गा्रऊंड में सुबह तड़के उठकर आठ-दस चक्कर लगाते थे। चेहरे का रंग कसकुट हो चुका था। वुडलैंड के जूते जवाब दे रहे थे। लगभग कई पहाड़ उन्होंने नाप डाले थे।
अब अगली तैयारी थी पराशर की वादियों और पहाड़ों को नापना। शोभू ने बाबू के चेहरे पर थकावट की लकीरों में छिपे एक दुख को महसूस किया। वह बोला, ‘‘लेखक बाबू, अब क्या महसूस कर रहे हो? तीन महीने बीत चुके हैं हमारे संग आपको। क्या अब तक हमारी ज़िंदगी से कुछ मिला जो तुम रोज कापी पर लिखते रहे हो।’’
बाबू हँसा, ‘‘क्या बताऊ शोभू जी, ज़िंदगी का एक रंग इकट्ठा करते-करते और रंग छूट जाते हैं, पर मैं अब धीरे- धीरे पिघल चुका हूँ, मैं अब इन वादियों में खो गया हूँ। आपके साथ घूमते-घूमते मैं मिट्टी जैसा बन गया हूँ। मेरा अभिमान जिसमें मेरा अस्तित्व पलता था, वह भी पहाड़ों से टकराकर चूर-चूर हो गया है। अब मेरा लिखने या फिर वह कापी निकालकर दिन भर के अनुभवों को समेटने का ज़रा भी मन नहीं करता है। सूरज के डूबने पर जैसे आपकी भेड़ बकरियों का रेवड़ शांत सुस्ताने बैठ जाता है, वैसे ही अब मैं सुस्ताता रहता हूँ, मैं आप जैसे लोगों के आगे नत्मस्तक हो गया हूँ। मैं जैसे पहले समझता था कि मैं लिखते वक़्त अपने पात्रों के साथ जीता था, उनके दुख दर्द समझता था, वह सब कुछ निरा बकवास था, कोरी कल्पनाएँ थी। हकीकत के रंगों का आसमान मैंने आपके साथ देखा है और मुझे लगता है कि अब हकीकत लिखने का क्या फायदा, हकीकत का तो सिर्फ़ अनुभव होता है जैसे मुझे हुआ। कभी लगता है मेरे विचारों की टोकरी में अब नए रंग के फूल उगने शुरू हो गए हैं और कभी लगता है जैसे मेरा मन रेगिस्तान के किसी शुष्क बीहड़ सा हो गया है। अब न आगे की सोच रहा है न पीछे की। सपाट रेत के टीलों पर बनी धूमिल सी पगडंडियाँ मिटती जा रही हैं। सारी की सारी मंजिलों के निशान अदृश्य हो रहे हैं।’’
शोभू ने एक बकरी को अपनी जुबान में धमकाया तो लेखक बाबू की बातों पर विराम लगा। ‘‘संजय भाई तुम अब हमारी ही तरह बन गए हो, जब इन झाड़- झकाड़ों भरे पहाड़़ों पर हम भटकते हैं तो हमारे मन की भी यही दशा बन जाती है। हम विचार शून्य बन जाते हैं हमें सिर्फ़ घासनियाँ दिखती हैं, हम अपने रेवड़ और साथ में मौसम से बचाव के तरीके के अलावा कुछ नहीं सोच पाते।’’
‘‘शोभू भई, मेरी दशा कुछ अलग सी है, अब मेरे लिए ज़िंदगी में कोई मंजिल नहीं है, बस निरन्तर प्रवाहमयी चाल है जो आपसे सीखी है। बस अब मैं सोचता हूँ कि बस चलता रहूँ बिना किसी मंजिल के। अपने बुने हुए ख़्वाबों के झोले में संभाल कर लटकाए भार को यहीं बिखेर दूँ और बिल्कुल खाली होकर विचरता रहूँ।’’
‘‘अच्छा तो तुम अब विचारों का ठहराव चाहते हो, पर यह काम भी बड़ा मुश्किल है जैसे ही तुम अपनी दुनिया में जाओगे, तुम पर फिर से ख़्वाबों का नशा छा जाएगा, तुम्हारा मन फिर से अपनी दुनिया में जाकर नए अनुभवों की पगडंडी बनाने पर जुट जाएगा। यह सब तो हमारे साथ रहके हुआ है। इसलिए जो भी मज़ा लेना है या फिर मजबूरी झेलनी है, उसे झेलते रहो, जो मन में कहानियाँ बनती हैं बनाते रहें, विचारों को इन झाड़- झकाड़ों में उलझाते रहो। परेशान होने की ज़रूरत नहीं।’’
‘‘शोभू भाई ज़िंदगी चाहे पगडंडियाँ बनाने का खेल खेलती है, और उन्ही पगडंडियों पर हम उलझते रहते हैं वैसे हर पगडंडी किसी न किसी मंजिल तक ज़रूर जाती है।’’
‘‘वो तो ठीक है संजय बाबू, पर हम कभी भी पगडंडियों पर नहीं चलते, यही तो गद्दी लोगों का कार्य है और जो किसी पगडंडी पर नहीं चलते, वे मंजिल की ओर कैसे चल सकते हैं। वैसे मैं कहता हू कि तुम भी बिना मंजिल के चलकर तो देखो बाबू, तुम्हें हर समस्या का समाधान मिल जाएगा। हमें तो सिर्फ़ इतना सा लालच होता है कि पाँच छः महीने बाद हमारी भेड़ बकरियों की कीमत मिल जाए, कुछ कम भी मिले तो फिर से मेहनत। हमने तो अपने बुजुर्गांे से बस यही सीखा है। तुम ज़िंदगी की लहरों की तलाश में और अधिक घूमना चाहते हो बाबू तो घूम सकते हो। हमारे हिस्से की रंगोली पहाड़ों पर ही बिखरी है। बस इसे हम ही पहचानते है। इसके रंग पहाड़ों के रंगों से बने है। यह किसी और दुनिया के जादूगरों ने नहीं बनाए।’’
शोभू बड़ी देर तक हँसता रहा और बोला, ‘‘यह हमारी परंपराओं की माटी है जो हमारी चमड़ी को रंग देती है। वैसे तुम मुझे पहले ही पल से अपने ही बिरादरी के लगे थे और अब भी उसी बिरादरी के रंगों में रंगे हो, फिर भी तुम फै़सला करने का अधिकार रखते हो। ज़िंदगी की लहरें सिर्फ़ किनारे ही नहीं ढूँढती, वे पहाड़ों से भी टकराती है, वे मरूथल में खो भी जाती हैं और नखलिस्तान बनने का हुनर भी रखती है। मेरे दादा ने तो मुझे केवल इतना ही बताया है बाकी तुम जानो।’’
जिलों की सीमाएँ खुल र्गइं थीं, उसने अपने घर तक पहुँचने की तैयारी कर ली। इस वक्त वह कुल्लू की ऊपरी पहाड़ियों में पहुँच चुके थे। उसके चेहरे पर लंबी दाड़ी हो चुकी थी। वह लगभग एक बाबा सा लग रहा था। उसकी जेब में मात्र कुछ ही रुपए थे। बाकी एक हज़ार रुपए उसको शोभू ने चलते वक़्त दिए थे। यह उसकी मजदूरी थी जो उसने इन भेड़ पालकों के साथ मेहनत भरा समय गुजारने पर पाई थी। उसने अपना स्लीपिंग बैग और टैंट चमन को दे दिए थे। बाइक तक पहुँचने के लिए उसे चार पाँच गाड़ियों में लिफ्ट लेनी पड़ी क्योंकि अभी पब्लिक ट्रांसपोर्ट शुरू नहीं हुई थी। आखि़र उसे ज़िंदगी की लहर ने एक किनारे लगा दिया था।

— डॉ. संदीप शर्मा

*डॉ. संदीप शर्मा

शिक्षा: पी. एच. डी., बिजनिस मैनेजमैंट व्यवसायः शिक्षक, डी. ए. वी. पब्लिक स्कूल, हमीरपुर (हि.प्र.) में कार्यरत। प्रकाशन: कहानी संग्रह ‘अपने हिस्से का आसमान’ ‘अस्तित्व की तलाश’ व ‘माटी तुझे पुकारेगी’ प्रकाशित। देश, प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ व कहानियाँ प्रकाशित। निवासः हाउस न. 618, वार्ड न. 1, कृष्णा नगर, हमीरपुर, हिमाचल प्रदेश 177001 फोन 094181-78176, 8219417857