कविता

आदमी

आदमी
क्या करे बेचारा,
उसे बस्ती में
दीखता है जंगल
और
जंगल में बस्ती।
वह नहीं चाहता कि
घुस आए
कोई हिंस्र पशु
उसकी बस्ती में,
फिर भी घिरा रहता है
दिन-रात इनसे,
उसे चील-कौए,
कुत्ते, गधे, सूअर, सियार,
भालू-चीते, शेर,
साँप-बिच्छू, नेवले
और
तमाम जानवर
दीखते हैं
अपने इर्द-गिर्द
आदमी की शक्ल में।
पाता है वह खुद को
जंगलियों और जंगलराज से घिरा,
ऐसे में जुट जाता है इंसान
बस्ती और जंगल
के शाश्वत रिश्तों पर
शोध में।
स्वाभाविक ही है
आदमी का जंगली हो जाना
कभी भी
जब उसे दिखाया जाए
जंगल-जलेबी का पेड़,
शहद का छत्ता, गर्म गोश्त,
कब्जा किया सिंहासन
या कि कोई गड़ा हुआ खजाना।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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