सामाजिक

मटियामेट कर देगा यह नागपाश

बहुधा लोकप्रियता के भरम में भीड़ से घिरे रहने के आदी लोग धीरे-धीरे ऐसे-ऐसे लोगों से घिर कर रह जाते हैं जिनका उपयोग भीड़ के सिवाय कहीं नहीं हो सकता। बुद्धिबल, विवेक और आत्मानुशासन से हीन लोग भीड़ की शक्ल में जहाँ-तहाँ जमा हो जाते हैं और फिर बड़े लोगों के इर्द-गिर्द ऐसे मजबूत घेरे बना लेते हैं कि इनके बिना उनका एक डग भी आगे नहीं बढ़ पाता। बड़े-बड़े लोग और बड़ी-बड़ी भीड़ दोनों एक-दूसरे के पर्याय ही लगते हैं।

लोकप्रियता के शिखरों को चूमने की उच्चाकांक्षा के चलते कई लोग भीड़ को ही अपना ईष्ट और लक्ष्य मानकर चलते हुए अपने आस-पास भीड़ का आकार लगातार बढ़ाए रखने के फेर में दिन-रात जुटे रहते हैं।

एक जमाना था जब एक हाथी होता था और उसके नाम पर दर्जनों हाथीवाले बाबे कमा खाते थे। अब हाथी रहे नहीं, दूसरी किस्मों के हाथियों का जमावड़ा हो चला है और उनके साथ चलने लगी हैं जमातें जमाने भर की। समाज-जीवन के हर क्षेत्र में हाथियों का वजूद बना हुआ है। कोई ध्यान-धरम के नाम पर, कोई सोशल वर्क या सर्विस के नाम पर, कोई राजनीति के नाम पर तो कोई किसी और क्षेत्र में फन आजमा रहा है।

जहाँ बड़ी-बड़ी हस्तियां होती हैं वहाँ उनके इर्द-गिर्द भीड़ जुटनी शुरू हो जाती है जो उनमें आयातित पॉवर रहने तक बनी रहती है। यह भीड़ ही है जो उन्हें भरमाने से लेकर लोकप्रियता के भरम बनाए रखने की हरचंद कोशिश में दिन-रात जुटी रहती है।

हस्तियों में कितनी ही नेक-नियति वाली भी होती हैं मगर आस-पास मण्डराने वाली भीड़ की हरकतों और हथकण्डों की वजह से उनके द्वारा अर्जित की जाने वाली सारी प्रतिष्ठा मिट्टी में मिल ही जाती है। आम और ख़ास के बीच कुचालक की तरह पसरी रहने वाली भीड़ के घेरों का ही असर होता है कि दोनों के बीच सीधे संवाद की स्थितियां समाप्त हो जाती हैं और दोनों ध्रुवों पर शुरू हो जाते हैं कयास अपने-अपने।

भीड़ का कहाँ कोई चरित्र होता है। भीड़ भीड़ है, उसे क्या मतलब किसी अच्छे-बुरे से। भीड़ का काम तमाशा देखना है और अपने यहाँ तमाशों के नाम पर भीड़ जुटाना आज भी सबसे सरल काम है। लोग तमाशे की झलक पाकर जमा हो जाते हैं अथवा खाने-पीने या चन्द पैसों की चाहत में इन्हें कहीं भी कभी भी इकट्ठा किया जा सकता है।

बड़े-बड़े महारथियों को इस भीड़ ने ही धूल चटवा दी है। अपनी लुटिया डूबोने वाले और कोई नहीं हुआ करते, आस-पास रहने वाले अपने तथाकथित अनुचर ही होते हैं। इन अनुचरों का काम ही होता है अपने उल्लू सीधे करना। इसके लिए वे हमेशा अपने आकाओं को अंधेरे में ही रखते हैं।

लोकप्रियता के अंधविश्वासों और मोह के अंधकार से घिरी हुई इन हस्तियों को पता भी नहीं चलता कि उनके नाम पर क्या-क्या हो रहा है। पता चले भी तो क्या। भीड़ के आँचल में ही इन्हें मिलता है दिली सुकून। फिर भीड़ में जमा सारे के सारे तो ऐसे ही होते हैं। इनमें कुछ कर गुजरने का माद्दा होता तो इन्हें भीड़ में शामिल होने की क्या मजबूरी थी।

भीड़ और हस्तियां दोनों के लिए बैसाखी का काम करता है यह शाश्वत संबंध। जिनमें कहीं कोई कमाने-खाने का माद्दा नहीं है, आपराधिक वृत्तियां हावी हैं, बिना मेहनत के कमाई करने की भूख जग जाए, कोई काम-धाम नहीं है और घर वाले भी परेशान हों। तब पैदा होती है पुरुषार्थहीन तमाशाई भीड़। और इस भीड़ में कैसे-कैसे लोग शामिल होते हैं यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है, ये पब्लिक है सब जानती है।

भीड़ में शामिल लोग हमारे अनुचर हो न हों, अपने आस-पास मण्डराने के आदी हो चले हैं, इसलिए इनकी गतिविधियों पर नज़र बनाए रखें, अन्यथा बड़ी-बड़ी हस्तियां धूल-धूसरित हो चुकी हैं वाह-वाह करने वाली और मौके-बेमौके तालियां बजाने वाली इसी भीड़ की करतूतों से। गोयरे के पाप से जिस तरह पीपल जलकर भस्म हो जाते हैं उसी तरह अपने आस-पास मण्डराने वाले खुदगर्ज और धूर्त्त-मक्कार अनुचरों की भीड़ का पाप भी कोई कम खतरनाक नहीं होता।

दुनिया के कई महान लोगों का पतन सिर्फ अपने इर्द-गिर्द मण्डराने वाली भीड़ की वजह से हुआ है। ये भीड़ ऐसे-ऐसे कारनामे कर गुजरती है कि सुनने वाले भी आश्चर्य और हैरत में डूब जाएं। अच्छे से अच्छे लोग भी आस-पास के लोगों की कारगुजारियों से बदनामी और बद्दुआओं से घिर कर रह जाते हैं। भीड़ ने जो कह दिया उसे ब्रह्मवाक्य मान लेने की भूल बड़े लोगों की कमजोरी है, इसका अहसास तब होता है जब पॉवर छीन जाता है। समय रहते यह अहसास हो जाए तो पुरुष पुरुषोत्तम बन सकता है।

किसी भी क्षेत्र में हम लोकप्रियता की ओर बढ़ने लगें, यह जरूरी है कि हमारे आस-पास अच्छे लोग हों, हमारा मूल्यांकन करते हुए समय-समय पर अच्छे-बुरे के बारे में बताएं और सुझाव दें।

पर दुर्भाग्य यह है कि आजकल ऐसे लोग आभामण्डल में छाए रहने लगे हैं जिनके पास न बुद्धि है, न चातुर्य, न कोई हुनर और न प्रतिष्ठा। जो कुछ भी नहीं करना जानता, वह भीड़ का हिस्सा बन जाता है। इनके पास कोई हुनर है तो वह है सिर्फ वाहवाही करना और तालियां बजाते रहकर अपना स्वार्थ पूरा करना। जो कुछ नहीं कर सकता वह भीड़ के रूप में किसी न किसी के आस-पास मण्डराकर समृद्धि की गंध पा लेने को उतावला बना हुआ है।

अपने को जब भी भीड़ से घिरा हुआ पाएं तब आत्मचिंतन करें और अपने बारे में अच्छे लोगों की निरपेक्ष टिप्पणियों को जानें, भीड़ में शामिल लोगों की हरकतों पर निगाह रखें और अपने दिल-दिमाग की खिड़कियाँ सदैव खुली रखें। व्यक्तित्व की सफलता के लिए यह भी जरूरी है कि अपने आस-पास लठैतों या वाहवाही करने वालों की भीड़ की बजाय ऐसे लोग हों जो सच और यथार्थ से आपको रूबरू कराते रहें। इनमें बुद्धि और विवेक हों तथा दृष्टि पावन एवं दिशा लोक मंगलकारी हो।

डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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