फर्क तो पड़ता है
फर्क तो पड़ता है
दौड़ते-भागते शर्मा जी जैसे ही ऑफिस पहुँचे डायरेक्टर के मुहलगे चपरासी ने उन्हें बताया- “सर ने आपको आते ही मिलने के लिए कहा है.”
डरते-डरते जैसे ही वे कैबिन में घुसे, साहब एकदम से बरस पड़े- “इससे पहले कि अाप एक नई कहानी सुनाएँ, मैं अपको स्पष्ट कह देता हूँ कि अाप आज आराम करिए. छुट्टी का एप्लीकेशन दीजिए और जितनी समाजसेवा करनी है कीजिए. तंग आ चुका हूँ मैं आपकी परोपकार कथा सुन-सुनकर. क्या फ़र्क पड़ता है आपकी समाजसेवा से. यदि नौकरी करनी है तो ढंग से कीजिए.”
शर्माजी साहब के आदेशानुसार छुट्टी का एप्लीकेशन देकर ऑफिस से बाहर आकर सोचने लगे- “अभी से घर जाकर क्या कर लूँगा. क्यों न हॉस्पीटल जाकर उस बच्चे की हालचाल पता कर लूँ, जिसे किसी दुर्घटना के कारण सड़क में पड़े हालत में देखकर अस्पताल पहुँचाने के चक्कर में ऑफिस देर से पहुँचा और साहब की डाँट खाई. शायद अब तक उसे होश भी आ गया हो.”
जैसे ही वे अस्पताल पहुँचे, डॉक्टर ने उन्हें बताया कि बच्चे को होश आ गया है और उसके मम्मी-पापा भी आ चुके हैं.
“आइए, आपको मिलवाता हूँ उनसे…. इनसे मिलिए, शर्मा जी, जिन्होंने आज सुबह आपके बच्चे को यहाँ एडमिट कराया है. यदि समय पर ये बच्चे को नहीं लाते तो कुछ भी हो सकता था.”
“सर आप… ये आपका बेटा…”
सामने डायरेक्टर साहब थे, हाथ जोड़कर खड़े. काटो तो खून नहीं. बोले- “शर्माजी, हो सके तो मुझे माफ कर दीजिएगा. मैंने आपको गलत समझा पर अब मैं जान चुका हूँ कि फ़र्क तो बहुत पड़ता है आपकी समाजसेवा से.”
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़