राजनीति

ई संघ कासी न पहुंचने का

मोदी सरकार को घेर ने के लिए विपक्ष ने बड़ा संगठन कर पार्टी बनाने की तजवीज में घिरे हुए हैं।इस महान कार्य की जिम्मेवारी नीतिश बाबू को दी गई थी।बीजेपी के अमित शाह नीतीश जी को थोड़ा लिहाज करने को क्ष रहे हैं कि जिनकी वजह से मुख्यमंत्री बने रहे उनका लिहाज करना जरूरी हैं।जहां सारे मिल कर मीटिंग कर रहे थे,वहां भी सब को किसी न किसी को किसी न किसी से समस्या थी।जैसे ममता दीदी को सीपीएम के प्रतिनिधि की हाजरी से तो केजरीवाल को कांग्रेस के राहुल गांधी के अध्यादेश में सहमति देने की शर्त पर इस समूह में जुड़ ने की शर्त थी।सर्व दलीय मीटिंग से ममता बनर्जी सीतारामजी को देख बिदक कर चली गईं तो राहुल गांधी की हाजरी से केजरीवाल बहाना बना सिटक लिए।
अब जब यूसीसी के लिए मोदी सरकार बहुत ही संजीदगी से कार्य कर रही हैं ,मोदी जी और अमित शाह अपने अपने भाषण में उसके पक्ष में बोल रहे हैं तब विपक्षों के विविध प्रत्याघात आ रहे है।फारुख अबदुला तो परोक्ष तरीके से धमकियां दे रहे हैं। यूसीसी लागू करने से पहले इन के नतीजों के बारे में सोचने की सलाह दे दी हैं।तो केजरीवाल तो यूसीसी को समर्थन खुल्ले आम दे रहे हैं।उन्होंने संविधान की कलम 44 का वास्ता दे यूसीसी का समर्थन किया हैं।एक देश एक कानून की बात वे भी कर रहे हैं।उद्धव ठाकरे भी यूसीसी के समर्थन में आ गए हैं,उन्होंने सरकार से स्पष्टीकरण मांगा कि विभिन्न जातियों पर यूसीसी का असर क्या होगा?शरद पवार ने भी ’नारो वा कुंजरो वा ’ की नीति अपनाई हैं न वो विरुद्ध में हैं न ही साथ दे रहे हैं।केंद्रीय राज्य मंत्री मेघवाल ने 13 जुलाई तक रह देखने के लिए बोला हैं जिसका मतलब 13 जुलाई तक लोगों से राय मांगी हैं जिसमें आठ लाख से ऊपर की राय यूसीसी के पक्ष में आ चुकी हैं। सदन के मानसून सेशन में सरकार प्रस्ताव रखें ऐसी पूरी शक्यता हैं।आम आदमी ने भी बोला कि वे सैंधांतिक रूप से यूसीसी के समर्थन में हैं किंतु उसे विभिन्न जातियों के समर्थन से लाना चाहिए।विपक्षोंं ने जाती और धर्मों के नाम पर लोगों को बांट ने का काम कर रहे थे,और किया भी हैं उन लोगों को भी यूसीसी का समर्थन करना मुश्किल हो जाता हैं।
देवेंद्र फडणवीस का साक्षात्कार भी उद्धव की सच्चाई को सामने लाना भी एक महत्व का मुद्दा हैं।चुनावों में जीत जाने के बाद गठबंधन को तोड़ने जैसे अनैतिक कार्य कर दूसरे दलों का समर्थन ले मुख्य मंत्री बनने के लिए दगा कर दामन छुड़वा कर बीजेपी का दामन छोड़ना राजनीति की चाल हो सकती हैं किंतु नैतिकता की नहीं।
इन परिस्थितियों का फायदा उठाने राहुल गांधी का मणिपुर जाना और उनका वहां पर हुए विरोध भी कुछ तो सूचन करता हैं।मणिपुर के लोगों ने विरोध किया।उनको रोका गया था इस हालत में वहां की यात्रा स्थगित करने की सूचना भी दी गई थी।ओज हालातों में वहां जा कर अस्थिरता लाने का प्रयास के अलावा कुछ नहीं था। पदयात्रा ने राहुल को थोड़ी प्रसिद्धि तो दी हैं किंतु राजकीय स्वीकृति नहीं मिली हैं।
सलमान खुर्शीद ने भी हकारात्मकता दिखाई हैं।सुप्रीम कोर्ट ने जो कहा हैं उसे बेबुनियाद नहीं बता कलम 44 का हवाला दिया हैं।
अब फिर से शरद पवार और अजीत पवार का मतभेद भी सतह पर आ रहा हैं।
कहां सब मिलकर विपक्ष एक कर सरकार बनाने की कोशिश कर रहे थे और अब बिखराव नजर आता हैं।वैसे भी अगर विपक्षी सरकार बन भी गई तो क्या राहुल गांधी,ममता बनर्जी,केजरीवाल और नितिशकुमार के प्रधानमंत्री बनने के सपनों का क्या होगा? राहुल गांधी का अपने आप को उत्तमतर मानना,ममता का अहम,केजरीवाल का स्वार्थ और नितिशकुमार के बरसों पुराने सपने का क्या होगा?
अब जो संयुक्त संघ बना हैं वह अपनी यात्रा पूरी कर पायेगा या बीच रास्ते में ही बिखर जायेगा,ये यक्ष प्रश्न हैं।

— जयश्री बिरमी

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।