अब फरिस्तों का कोई सहारा नहीं है
झलक एक देकर खरीद ली आंखे
इन्हें और कुछ अब गवांरा नहीं है
चले उनकी जानिब किसी रोज थे
अब क़दमों पे जोर हमारा नहीं है
जो बने थे हकीम वो रोग देने लगे हैं
दिखाके सूकूँ वो चैन भी लेने लगे हैं
नाखुुदा अब नहीं मिलते मझधार में
मुझे दिखता अब कोई किनारा नहीं है
नजर को चेताया है ख्वाबों की दुनियाँ
न तू अब टहल है हिज़ाबों की दुनियाँ
कई ‘राज’ सागर में दफ़न हो चुके हैं
अब फरिस्तों का कोई सहारा नहीं है
कहा बेचैन को चैन अब मिल जायेगा
अब फकत ओ किसी रैन मिल जायेगा
फिरते जो यहाँ बदन पे सितारे लिए
इनका! निशा मे कोई सहारा नहीं है
— राजकुमार तिवारी ‘राज’