गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

आज कुछ भी सुनो कहा ही नहीं
नीर तो व्यर्थ यूँ बहा ही नहीं

आज आतंकवाद फैले यहाँ
कह रहे , की कभी ख़ता ही नहीं

देख बारूद से भरा बम रहा
फूटते ही कोई बचा ही नहीं

सब झगड़ते बिना किये बात ही
लो किसी से सहा गया ही नहीं

जो हुई बात आज रिश्ते जुड़े
स्नेह बिन अब रहा मज़ा ही नहीं

वो समझ ही सका न तब बात मेरी
ख़ून के रंग तो जुदा ही नहीं

देख कोई करे कई घात ही
सोचता क्यों मिले सज़ा ही नहीं

— रवि रश्मि ‘अनुभूति’