बालकहानी – नरक और स्वर्ग
एक गाँव था- रामपुर। वहाँ रहता था- रामनाथ। रामनाथ बहुत ही मेहनती और ईमानदार किसान था। वह काम को भगवान की पूजा मानने वाला था। गाँव के सब लोग उसका आदर करते थे। रामनाथ का एक ही बेटा था- दीनानाथ। वह एकदम मूरख तथा निकम्मा था। दिनभर आवारा लड़कों की तरह इधर-उधर धूमता रहता। कभी कोई काम करता भी तो उसे बिगाड़कर रख देता।
एक दिन रामनाथ ने अपने बेटे को पास बुलाकर कहा, ‘‘बेटा दीनानाथ, अब तुम बड़े हो गए हो, यूं निकम्मों की तरह इधर-उधर भटकते रहना तुम्हें शोभा नहीं देता। तुम्हें तो अब मेरे काम में हाथ बँटाना चाहिए।’’
पिताजी ने इतने स्नेह से समझाया कि बेटे को तुरंत अपनी गलती का अहसास हो गया। उसने उत्साह से कहा, ‘‘आप ठीक कहते हैं बाबूजी। अब से मैं घर के सारे काम कर दिया करूँगा। आप मुझे सिर्फ काम बता दीजिए।’’
दीनानाथ का उत्साह देखकर उसके पिताजी बहुत खुश हुए। उन्होंने काम बताया, ‘‘बेटा, खेत में आलू की फसल पक गई है। तुम खेत जाकर उसे खोद लो।’’
दीनानाथ बोला, ‘‘बाबूजी ये आलू क्या होता है और मैं उसे कैसे खोदूँ ? मैं तो जानता भी नहीं।’’
“तुम फावड़ा लेकर जाओ और खेत में खोदना शुरू कर दो। जमीन से जो कुछ गोल-गोल चीज निकले, तुम उसे खेत के किनारे साफ जगह फैला दो, ताकि वह सूख जाए।’’ दीनानाथ ने उसे काम बताया।
पिताजी के बताए अनुसार दीनानाथ खेत में जाकर फावड़ा चलाना शुरू कर दिया। वह बड़ी लगन से खुदायी कर रहा था।
पहले तो कुछ आलू निकले फिर उसका फावड़ा किसी ठोस चीज से टकराया। दीनानाथ ने उसे निकालकर देखा। वह एक घड़ा था। जो गोल-गोल सोने के सिक्कों से भरा था।
दीनानाथ ने उन सिक्कों को भी गोल आलू समझकर उठाया ओर ले जाकर खेत के किनारे एक साफ जगह सूखने के लिए फैला दिया। उसे क्या पता कि ये कितने मूल्यवान हैं। वह पुनः काम में लग गया। पर यह क्या उसने ज्यों ही फावड़ा चलाया धुएँ के बीच अट्टाहास करता हुआ एक दानव आकृति प्रकट हुआ। दीनानाथ पहले तो डर गया फिर हिम्मत करके पूछा, ‘‘आप कौन हैं श्रीमान ?’’
वह दानव गंभीर होकर बोला, ‘‘मैं यक्ष हूँ। इस खजाने की रक्षा करने वाला। मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। सचमुच तुम बड़े ही निर्लोमी हो। मुझे तुम्हारे जैसे की एक इमानदार आदमी की जरूरत थी।’’
यक्ष की बात दीनानाथ की समझ में नहीं आई। उसने कहा, ‘‘महाराज मैं आपकी बात नहीं समझ पा रहा हूँ। आपको भला मेरी क्या जरूरत हो सकती है ?’’
यक्ष ने पूछा, ‘‘क्या तुम मेरी सहायता करोगे ?’’
दीनानाथ ने डरते हुए हामी भर दी और इसके साथ ही जोर का धुआँ उठा और दोनों एक दूसरे प्रदेश में पहुँच गए। यह एक सूखाग्रस्त प्रदेश था।
दीनानाथ चारों ओर आवाक होकर देखने लगा। दुबले-पतले नंग-धडंग बच्चे खेल रहे थे। स्त्रियाँ दूर नदी से पानी ला रही थीं। उनके तन पर पूरे कपड़े भी न थे। पुरूष लंगोटी पहने हुए थे। हरियाली का नामोनिशान तक न था। दीनानाथ ने यक्ष से पूछा, “महाराज, क्या इनके पास पहनने-ओढ़ने के लिए कपड़े नहीं ? क्या इनके पास पर्याप्त भोजन नहीं ? क्या ये बहुत ही गरीब लोग हैं ?’’
दीनानाथ की व्याकुलता देख यक्ष मन नही मन खुशी से झूम उठा। उसने कहा, “हाँ बेटा, लेकिन अगर तुम चाहो, तो इस नरक को स्वर्ग बना सकते हो और तुम्हारे इस कार्य में ये लोग भी तुम्हारी हर-सम्भव सहायता करेंगे।’’
दीनानाथ आश्चर्य से यक्ष का मुँह ताकता रहा। फिर बोला, ‘‘महाराज आपकी बातें मेरी समझ से परे हैं। मैं भला इनकी क्या सहायता कर सकता हूँ ?’’
‘‘तुम बहुत कुछ कर सकते हो दीनानाथ। तुम्हारे खेत में जो खजाना मिला है जिसे तुमने गोल-गोल आलू समझकर खेत के किनारे सूखने के लिए फैला रखा है, वह आलू नही सोने की मुहरे हैं। उन्हें बेचकर तुम इनकी गरीबी दूर कर सकते हो। ये कुएँ और तालाब जो सूखे पड़े हैं, उनकी खुदाई करा सकते हो। इन कटे वृक्षों की जगह नए वृक्ष लगा कर इसे स्वर्ग बना सकते हो।’’
अब बात दीनानाथ की समझ में आ गई। उसने यक्ष की बातों पर अमल कर उस नरक को स्वर्ग में बदल दिया।
— डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा