मायका वर्सेज ससुराल (लघुकथा)
“पापा, आप तो अक्सर कहा करते हैं कि मैं बेटा और बेटी में कोई भी फर्क नहीं करता, पर मैं पिछले कुछ सालों से देख रहा हूं कि हर बार मेरे बर्थ डे पर तीन पौंड की केक और परी की बर्थ डे पर पांच पौंड की केक लाते हैं ? यही नहीं आप हर बार उसे बहुत ही महंगे उपहार भी देते हैं। ऐसा भेदभाव क्यों पापा ?” दस वर्षीय बेटे ने बड़ी ही मासूमियत से पूछा।
“बेटा, ऐसा मैं उसके मायके याने कि पिता के घर की बर्थ डे और बचपन को यादगार बनाने के लिए करता हूं। तुम्हें तो पता ही है कि वह 25-26 साल की उम्र के बाद, जब उसकी शादी हो जाएगी, तो अपनी ससुराल चली जाएगी, जबकि तुम तो हमेशा हमारे साथ ही रहोगे।” पिता ने बेटे को प्यार से समझाते हुए कहा।
“हां, सो तो है पापा।” बेटे ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा।
“इसका मतलब यह हुआ कि वह हमारे साथ महज 25-26 साल ही रहेगी। इसलिए मैं चाहता हूं कि जब तक वह हमारे साथ है, अच्छे से रहे, उसका बर्थ डे बहुत ही अच्छे से मनाया जाए, जिससे कि उसे अपने मायके में मनाए गए बर्थ डे हमेशा याद रहे।” पिताजी ने कहा।
“हां, पर शादी के बाद भी तो वह अपनी ससुराल में बर्थ डे मनाएगी ही न ?” बेटे ने अपनी अधिकतम बुद्धि का इस्तेमाल करते हुए कहा।
“देखो बेटा, हम तो भलीभांति जांच-परख कर ही एक अच्छे परिवार में परी की शादी करेंगे, ताकि जैसे वह यहां है, वैसे ही अपनी ससुराल में भी रह सके। फिर भी एज ए पैरेंट्स मैं अपनी बेटी के साथ अधिक से अधिक खूबसूरत पल बिताना चाहता हूं, जिसकी यादें हमें आजीवन ऊर्जा दें। यही कारण है बेटा कि मैं उसकी बर्थ डे को दुगुने उत्साह से मनाना चाहता हूं।” पिता ने कहा।
“हां, पापा अब मैं समझ गया कि आप मम्मी की बर्थ डे और अपनी मेरिज एनिवर्सरी को क्यों इतने धूमधाम से सेलिब्रेट करते हैं। इसलिए ना कि मम्मी को कुछ स्पेशल फीलिंग्स आए और वे अपने मायके की बर्थ डे को मिस न करें। वाकई यू आर ग्रेट पापा। आई लव यू।” बेटे ने कहा और पिता की टांगों से चिपक गया।
नम आंखों से पिता ने पुत्र को गोदी में उठा लिया।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर छत्तीसगढ़