आत्मशुद्धि का साधन है : ‘क्षमा’
‘पर्युषण पर्व’ आत्म-शुद्धि का पर्व है। यह सत्य, अहिंसा और प्रेम का प्रतीक है एवं इसका एक आध्यात्मिक महत्त्व भी है। इस पर्व के आठ दिनों में धर्मनिष्ठ श्रावक-श्राविकाएँ धर्म-स्थान में विराजित साधु-साध्वियों की सन्निधि में आकर संयमित, त्यागमय जीवन व्यतीत करते हैं। इस पर्व में जप, तप, साधना, आराधना, उपासना, सामायिक, प्रतिक्रमण आदि की साधना की जाती है। यह पर्व जैन एकता का प्रतीक है। जैन समाज इसे बड़ा ही महत्त्व देता है। इस पर्व में श्रावक-श्राविकाएँ जाग्रत होकर साधना में लीन हो जाते हैं। यह पर्व न सिर्फ जैनियों के लिए अपितु समस्त मानव जाति के लिए मंगलकारी, आत्म-कल्याणकारी, विश्व-बंधुत्व के भाव बढ़ाने वाला, ज्ञान-आचरण की प्रेरणा देने वाला पर्व है।
यह पर्व विषय और कषाय के दलदल में दबी हुई चेतना को जागृत कर उसे साधना पथ में आगे बढ़ाने का अपूर्व अवसर है। अन्तर में लीन होकर आत्मा को परमात्मा बनने की प्रक्रिया इन दिनों में की जाती है। महापुरुषों के साधनामय जीवन के प्रसंग सुनकर साधना में कदम आगे बढ़ाने की प्रेरणा मिलती है। मैत्री भाव से अपने मन को सुगंधित बनाकर मन में पड़ी द्वेष की दुर्गंध को दूर करना है, क्योंकि यह द्वेष न केवल मन को अपितु हमारे सारे अस्तित्व को दुर्गंधमय बना देता है। मैत्रीभाव इसी दुर्गंध को दूर करके अमृत का वर्षण करता है।
पर्युषण का विशेष दिन है- ‘संवत्सरी’। क्योंकि इस दिन प्रत्येक व्यक्ति वैर भाव को भूलकर, एक-दूसरे से क्षमायाचना कर अपने में ताजगी एवं नवीनता का अनुभव करते हैं। जो सिर्फ वाणी से ही नहीं अपितु मन की गहराई से मैत्री के भाव प्रकट कर परस्पर क्षमा करते हैं, वे पर्युषण पर्व को सार्थक बनाते हैं। पर्युषण के पूर्व के दिनों में की गई तप-आराधना की परिणति क्षमा भाव में होती है, तभी तप की सार्थकता है, उपयोगिता है।
मानव बचपन से बुढ़ापे तक कई गलतियाँ करता है। उन गलतियों को गलती के रूप में स्वीकार कर, उनको न करने का प्रण लेकर आगे बढ़ता है तो बहुत उन्नति करता है। इसी परिप्रेक्ष्य में वह दूसरों को भी अपने सदृश समझे तो दूसरों की गलतियों को भी सहजता से क्षमा करने का सामर्थ्य उसमें विकसित हो जाता है। वह यह सोचकर सदैव प्रसन्न रहता है कि ये भी अपनी गलतियों को एक दिन सुधार लेंगे। अतः क्षमा का मानव जीवन में बहुत बड़ा महत्त्व है। यदि कोई इन्सान गलती करे और उसके लिए वह माफी मांग ले तो सामने वाले का गुस्सा काफी हद तक दूर हो जाता है। जिस तरह क्षमा मांगना इन्सान के जीवन का एक अच्छा गुण है, उसी तरह किसी को क्षमा करना भी उसके व्यक्तित्व में चार चाँद लगाने का कार्य करता है। क्षमा प्रेम का पोषक है। प्रतिक्रमण करते समय भी कहा जाता है कि- ‘‘मैं सभी जीवों को क्षमा करता हूँ। सभी जीव मुझें क्षमा करें।’’ हमें दूसरों के अलावा अपने आपको भी माफ करना जरूरी है। क्योंकि हमसे भी अक्सर गलतियाँ हो जाती है। स्वयं द्वारा कृत गलतियों से भी हम कभी-कभी अपराध और आत्मग्लानि के बोझ से कुण्ठित हो जाते हैं। इसलिए उस गलती को ना दोहराने का प्रण लेते हुए स्वयं को भी माफ कर देना चाहिए।
कोई क्षमा करेगा या नहीं ऐसे विचारों को अपने दिल से निकालकर जो व्यक्ति अपने शत्रु या प्रतिद्वंद्वी के समक्ष स्वयं उपस्थित होकर सरल हृदय से क्षमा मांग लेता है, वहीं विनम्र और क्षमाशील कहलाता है। क्योंकि हमारा मन दूसरे के दोषों एवं भूलों को शीघ्र भूलने को तैयार नहीं होता। इसलिए वाणी द्वारा हुए घावों को भरने के लिये एवं टूटे हुए दिलों को जोड़ने के लिए सिर्फ एक ही उपाय है, और वह है- ‘क्षमा’।
— राजीव नेपालिया (माथुर)