वीतरागता की साधना : पर्युषण महापर्व
बड़े ही हर्ष का विषय है कि दिनाँक 14 अगस्त से हमसब का प्रिय पर्व पर्वाधिराज पर्युषण महापर्व का प्रारम्भ होने जा रहा है। पिछले कई दिनों से इस पर्व को मनाने की तैयारी जोर-शोर से चल रही थी। हम सभी बड़ी उत्सुकता से इसकी प्रतीक्षा कर रहे थे साथ ही सभी श्रावक-श्राविकाएँ तन-मन-धन एवं श्रद्धा से इस पर्वराज की आराधना में जुटे हैं।
श्रमण जीवन एवं संस्कृति में पर्युषण महापर्व का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह पर्व आध्यात्मिक साधना को अन्तरमन से करने की प्रक्रिया है। तन के मैल को दूर करने के लिए जैसे स्नान आवश्यक क्रिया है वैसे ही मन पर लगे कषाय, विषय-वासना एवं विकारों को धोकर आत्मा को साफ, स्वच्छ बनाने के लिये पर्युषण आध्यात्मिक स्नान है। यह आत्मशुद्धि का, पर भाव से हटकर स्वभाव में रमण करने का पर्व है। वस्तुतः आत्म जाग्रति कर अन्तर-स्फूर्ति का महापर्व है।
पर्युषण पर्व आत्म जागरण का संदेश वाहक है। सुप्त आत्मा को जगाने का, अपने आपको सही रूप से पहचान दिलाने का है। वन में सोये हुए शेर का दृष्टान्त कि- शेर जब सोया हुआ हो तो उसकी सभी शक्तियाँ भी सो जाती है और जब वह अपनी निन्द्रा से जाग जाता है तो उसकी सभी शक्तियाँ जो निन्द्रासन में थी वो भी स्वतः जाग जाती है। आत्मा की भी यहीं स्थिति है। जब वह सो जाती है तो उसकी सारी शक्तियाँ भी सो जाती है और जब वह जागती है तो सभी शक्तियाँ भी जाग उठती है और जब आत्मा सो ही जाती है तब काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ, विकार रूपी अनेक दुष्प्रवृत्तियाँ उछल-कूद मचाती ही रहती हैं और आत्मा के जगते ही उनका पता ही नहीं लगता की वे कहाँ हैं। सभी ओर से करुणा, क्षमा, सरलता, संतोष एवं सत्य की ज्योति चमकने लगती है तथा अंधकार का अस्तित्व कहीं भी नहीं रहता।
यह पर्व हमारे जीवन में एक नये परिवर्तन के साथ-साथ उल्लास और उमंग जगाता है, इसलिये इन दिनों को हमने पर्व कह दिया। वैसे पर्व दो प्रकार के होते हैं- 1. लौकिक पर्वः- दिवाली, दशहरा, होली, रक्षा-बंधन, रामनवमी आदि एवं 2. लोकोत्तर पर्वः- जैसेः-पर्युषण महापर्व, श्रुत पंचमी, महावीर जयन्ती आदि। यह सभी पर्व लोकोत्तर पर्व की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें हम आध्यात्मिक या धार्मिक पर्व भी कह सकते है। ये सभी पर्व विशुद्ध धार्मिक पर्व कहलाते हैं। इनके पीछे आत्म विकास एवं आत्मशुद्धि की प्रेरणा छिपी हुई होती है।
इस पर्व के दिनों में हमारी दृष्टि अपने शरीर से ऊपर उठकर आत्मा का दर्शन करने का प्रयत्न करती है। जब हम अपनी आत्मा का दर्शन करेंगे तो परमात्मा के दर्शन तो स्वतः हो ही जायेंगे। इन दिनों में आत्मिक शुद्धि, क्रोध-कषाय आदि का त्याग कर शान्ति और समता का अभ्यास किया जाता है।
इस पर्व में वीतराग-भाव की विशेष साधना की जाती है। परस्पर के वैर-विरोध को शान्त कर क्षमा, मैत्री भाव एवं प्रेम की गंगा बहाई जाती है। शत्रु से शत्रु भी इस दिन एक-दूसरे को क्षमादान करके मन को शान्त एवं निर्वेर बनाने का प्रयत्न करते है। इस महान् पर्व की भावना जो हमारे में एक दिन के लिए जाग्रत होती है, यदि वह सदा के लिए हमारे जीवन में आ जाए तो समूचा संसार स्वर्ग बन जायेंगा, फिर कोई किसी का शत्रु न रहेंगा। इससे सर्वत्र बंधुत्वभाव का दर्शन हो जायेंगा और वास्तविक रूप से ‘‘वसुदेव कुटुम्बकम’’ का स्वप्न साकार हो जायेंगा।
ये दिन शरीर के मोह में पागल बनने के लिए नहीं है, बल्कि शरीर के मोह से अलग होने के दिन है। इन दिनों में अपनी शारीरिक व्याधियों, अपनी कमजोरियों, अपनी भावनात्मक दुर्बलताओं को स्वीकार करते हुए भी यदि कोई व्यक्ति उनका त्याग नहीं कर सकता तो उसका अपराध क्षम्य है।
पर्युषण पर्व के आगमन पर शारीरिक प्रवृत्तियों का संक्षिप्तीकरण करना भी आवश्यक है। अपने मनोरंजन की प्रवृत्तियों का अभाव करना है। उसी प्रकार शरीर को श्रृंगारित करने की जो प्रवृत्ति है, उसका भी त्याग होना जरूरी है। शरीर को श्रृंगारित करने, शरीर को सुसज्जित करने, अधिक-से-अधिक भड़कीले परिधान पहनने के लिये अनेकों लौकिक पर्व हमारे समकक्ष आते ही रहते हैं। लेकिन पर्युषण तो अध्यात्म का पर्व है। इसमें यह सब नहीं होना चाहिये। हो सके तो वस्त्र-शोधन व शरीर स्नान भी कम-से-कम पानी से करना चाहिये। साथ ही अपनी भाषा भी कड़वी नहीं होनी चाहिये तथा अपनी वाणी पर भी अनुशासन रखना चाहिए।
इन दिनों में अधिक से अधिक साधना एवं तपस्याओं की अर्घ्य अपने पूज्य गुरुवरों के श्रीचरणों में चढ़ाकर अपने जीवन को कृर्ताज्ञ करने की भावना होनी चाहिये। हाँ, एक विशेष बात यह है कि साधना रुचि, भक्ति, यत्ना, अहोभाव एवं समझपूर्वक होनी चाहिये। क्योंकि साधना- आराधना क्वाटिंटी नहीं क्वालिटी मानती है। तो आईयें, हम इस महापर्व को ज्यादा-से-ज्यादा अपनी साधना एवं तप-त्याग से मनाकर अपने को पुण्यवान बनायें।
— राजीव नेपालिया (माथुर)