‘साहित्यिक लेखन और चुनौतियाँ’ – लेखकीय बैठक 2023
‘पराधीन सपने सुख नाही’……….. ‘मानस’ में तुलसी ने जब माता सीता की परिस्थितियों का उल्लेख किया तो यह उनका साहित्य-कौशल था जो उस समय की ग़ुलामी की दशा को साहित्यिक मानदंडों की परिधि में रहते हुए जन-जागरण का समुचित प्रयास किया| कहने का तात्पर्य यह कि साहित्यिक लेखन में चुनौतियां हर काल में रहीं हैं किन्तु एक सजग एवं सशक्त कवि, लेखक, कहानीकार, उपन्यासकार अतीत के वैभव, समकालीन चुनौतियों और भविष्य की संभावनाओं को ध्यान में रखते हुए अपनी सोच को जन-मानस को परोसता है और समाज का दर्पण होने के साथ-साथ एक दिशा निर्माण भी करता है|
सात अगस्त 2023 को नॉएडा स्थित मारवाह स्टूडियोज़ में एएऍफ़टी(AAFT) के चांसलर डॉ संदीप मारवाह जी के निर्देशन में सचिव सुशील भारती जी द्वारा ‘आठवीं राइटर मीट’ जो सितम्बर माह में आयोजित होने वाले साहित्यिक उत्सव(नॉएडा लिटरेचर फ़ेस्टिवल) की पूर्व पीठिका के रूप में आयोजित किया गया| विषय रहा- ‘साहित्यिक लेखन और चुनौतियाँ’|
विभिन्न पृष्ठभूमियों के लेखकों की उपस्थिति में चर्चा हुई| समस्याएं, समाधान और सुझावों के सन्दर्भ में संवाद हुआ| संवाद इस तरह कि संदीप मारवाह त्वरित प्रतिक्रिया और उत्साहवर्धन कर रहे थे| मंचासीन ने तो अपने विचार विस्तार से रखे ही, साथ ही श्रोताओं को भी अपने विचार संक्षिप्त में रखने का सुअवसर मिला| दिनेश उपाध्याय, दिवाकर गोयल, देवदत शर्मा, कुमार राकेश के साथ आपकी अपनी पूनम माटिया की भी विशिष्ट उपस्थिति एवं उद्बोधन रहा|
साहित्यिक लेखन की चुनौतियों का ज़िक्र हो रहा है तो कुछ वर्ष पूर्व ‘अयन प्रकाशन’ द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘महिला साहित्यकारों की समस्याएं’ का ध्यान आना स्वाभाविक था किन्तु यह विषय उससे वृहद् है| उसमें विभिन्न महिला साहित्यकारों द्वारा विषय-संदर्भित लेख संकलित किये गए हैं| मेरा लेख भी उसका अभिन्न अंश है|
सदैव से कवि या अन्य साहित्यकारों की मान्यता रही है कि उन्हें सत्ता के विरोध में लिखना चाहिए इससे सरकार पर नियंत्रण रहता है| इस बात को सिरे से ख़ारिज भी नहीं किया जा सकता क्योंकि सरकार की प्रशंसा में लिखने वाले दरबारी कवि कहलाये जाते रहे हैं| किन्तु वर्तमान परिपेक्ष में देखें तो यह ज़रूरी हो जाता है कि यदि कुछ अच्छा कार्य हो रहा है तो पत्रकार, लेखकों, कवियों का भी यह कर्तव्य बन जाता है कि साहित्यिक मानदंडों को निभाते हुए अपने लेखन की बुनावट में महीनता से उसे शामिल करें| आदिकाल में जब महाकवि कालिदास ने ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’ में जब लिखा-‘राजा दुष्यंत शाकुंतला से विवाह कर उसे भूल गये’ ……..तो इसे हलके में न लेकर मानना चाहिए कि कई-कई शादियाँ करना एक ग़लत आदत थी राजपरिवारों में| साथ ही कालिदास ने दुष्यंत की वीरता का बखान भी किया| वेदव्यास भी जब ‘महाभारत’ में एकलव्य का अंगूठा कटवा लेने का ज़िक्र करते हैं तो वे कौरवों और राजगुरु द्रोणाचार्य के जातिगत भेदभाव और क्रूरता का वर्णन करते हैं| साहित्यिक लेखन का यही सौष्ठव है कि अपने समय का सटीक वर्णन करते हुए अपनी संस्कृति-सभ्यता के गौरव को भी प्रखरता से उकेरता है| अपने समय का दस्तावेज होता है| यहाँ इसलिए यह बताना आवश्यक है कि लेखकों की बैठक में संदीप मारवाह ने अपने संसथान द्वारा प्रकाशित सचित्र पुस्तक –‘मोदी सरकार के आठ वर्ष’ सभी को भेंट की|
जहाँ तक चुनौतियों का प्रश्न है ……… पारिवारिक विघटन अर्थात संयुक्त परिवारों से एकल परिवारों और वह भी एक बच्चे का चलन …….चुनौती प्रस्तुत करता है क्योंकि अब संवाद नहीं होते, हँसी-मज़ाक़ का स्थान बहस और कटाक्ष ने ले लिया है, कहावतों और मुहावरों का प्रयोग सही परिपेक्ष में नहीं लिया जाता| भाषा भ्रष्ट हो रही है | सभ्रांत भाषा और सभ्य विषय-वस्तु का अभाव दिख रहा है| मोबाइल के अत्यधिक प्रयोग ने शब्दों और वाक्य-विन्यास में उथल-पुथल मचा दी है| अच्छा लिखने-पढने का चलन कम हो रहा है| कॉपी-पेस्ट का अत्यधिक बोलबाला है| शोध का असल मकसद भूल केवल गूगल सर्च तक ही शोध का दायरा सीमित हो गया है| सोशल मीडिया के माध्यम से लेखन की चोरी बढ़ गयी और यहाँ-वहाँ थोड़े बदलाव से रचना को अपना बना कर प्रस्तुत करना आम हो गया है|
‘प्रोफेशनलिज्म’ (professionalism) अर्थात किसी एक विषय में महारत हासिल अन्य विषयों से अनभिज्ञता भी सम्पूर्णता और संवाद में बाधा बनती है जो लेखन में तात्विक विमर्श के अभाव का कारण बनती है|
शिक्षा तंत्र में भारतीय संस्कृति के महान लेखन ……. वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, गीता तथा अन्य ग्रंथों का केवल औपचारिक उल्लेख ही किया जाता रहा है जिसके कारण सतही ज्ञान अज्ञान से अधिक हानिकारक साबित होता रहा है| शिक्षा नीति में महत्त्वपूर्ण बदलाव के बाद अब भारतीय ज्ञान-संपदा और भाषाओं के विकास की आपेक्षा की जा सकती है| साहित्य समाज-राष्ट्र के हित में रचा जाए और जन-जन को उनकी भाषा में उपलब्ध हो, यह आवश्यक है|
लेखन की गुणवत्ता, तत्पश्चात प्रकाशन, प्रसार और पाठकों की रूचि का पुनः विकास वृहद् प्रयास मांगता है साथ ही लेखकों और प्रकाशकों के मध्य समन्वय भी अत्यंत आवश्यक है|
विषय गंभीर चिंतन एवं प्रयास की आपेक्षा रखता है|
संदीप मारवाह द्वारा इस वार्षिक बैठक को त्रैमासिक करने का विचार भी इस सन्दर्भ में सराहनीय है|
फ़िल्म-राइटरस, कवियों, कहानीकारों, फ़िल्म निर्माताओं, प्रकाशकों इत्यादि का सामूहिक संवाद इस दिशा में लाभान्वित करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है|
— पूनम माटिया