लघुकथा

पड़ोसी 

ये क्या !..फिर दोनों पड़ोसन लड़ रही हैं।  आखिर किस बात पर रोज चिक-चिक करती हैं ये दोनों? रोज की तरह शालू अपने ऑफिस के लिए तैयार होने के लिए पीछे की खिड़की खोल देती है। वहाँ सामने से रौशनी आती है तो सब साफ-साफ सा लगता है। “मेक-अप तो हल्का ही करना है पर कहीं ऊपर-नीचे न हो जाए इसलिए इधर आती हूं वरना मैं खिड़की खोलूँ ही नहीं।” मन ही मन कुढ़ती हुई खिड़की बंद करके बाहर की ओर आकर दरवाज़ा लॉक करती है।

जाते-जाते उसने सोचा चलकर जरा पुछ ही लूँ ये क्या माजरा है. “अरे आँटीजी ! आप दोनों रोज-रोज किस बात पर एक-दूसरे से भिड़ जाती हैं..?”

“भिड़ने वाली बात ही है जानना चाहोगी? ये आए दिन मेरा अचार का मर्तवान बदल लेती है ,चुल्हा जलाकर बाहर रखती हूँ वो भी बदल लेती है।पता नहीं क्या मिलता है इसे।”

“देखो बेटा!..मैं हमेशा कहती हूं कि मैंने नहीं किया है फिर भी यह नहीं मानती। क्या करूँ मैं..?”

“ओह! ये बात है। एक दिन मैंने कुछ लड़कों को ये इधर-उधर करते देखा था ,पर मुझे क्या मालूम झगड़े की वजह यही है। बच्चे शरारत में ऐसा करते हैं कभी-कभी।”

“शरारत!..दो लोगों को लड़ाकर मजे लेना ,क्या ये अच्छी बात है।अब तुम बताओ कौन-कौन हैं इसमें।”

“जाने दीजिए न आंटी!..पता चल गया न ,वो जब ऐसा करें तो आप भी बदल लो फिर। काहे की लड़ाई होनी है। पड़ोसी जैसा भी हो बनाकर रखना पड़ता है।आखिर पहली आवाज पर वही तो पास होते हैं।”

— सपना चन्द्रा

सपना चन्द्रा

जन्मतिथि--13 मार्च योग्यता--पर्यटन मे स्नातक रुचि--पठन-पाठन,लेखन पता-श्यामपुर रोड,कहलगाँव भागलपुर, बिहार - 813203