एक मिनट…
भारत में कई विदेशी लोग आये थे। डॉ.रामधारी सिंह के अनुसार ‘ईसाई और मुसलमानों को छोड़ दें, तब भी, ग्यारह जातियों का आगमन और समागम का प्रमाण मिलता है।’ सभी जातियों के लोग इस देश को अपना देश मान लिया और पूर्णतया यहाँ के हो गये हैं। उनमें नीग्रो, औष्ट्रिक, द्रविड़, आर्य, यूनानी, यूची, शक, आभीर, हूण, मंगोल आदि थे और इस देश का अंग बन गये हैं। विभिन्न आचार-व्यवहार, खान-पान, रहन-सहन, वेष-भूषा का समावेश हमारे देश में ही देखा जाता है। सिंधु नदी के नाम पर इस देश का और एक नाम है हिंदू देश। यहाँ की संस्कृति हिंदू संस्कृति कही गयी है। इसलिए, हिंदू संस्कृति किसी एक जाति व वर्ग की नहीं है। इन सभी जातियों की संस्कृतियों के सम्मिश्रित रूप का नाम है। विभिन्नता के इस रूप को समझना, हरेक की अपनी संस्कृति को मानना और मान देने में हमारी उन्नति है। बहुत प्राचीन काल से जो आदिम संस्कृति है, दलित संस्कृति है, यहाँ मजौद है, वह उपेक्षित रह गयी है। आज के स्वतंत्र भारत में उपेक्षित दलित संस्कृति की विशेषता दलित साहित्यकारों के द्वारा उसका प्रकाशमान हो रही है। अब भारत में इस्लाम और ईसाई संस्कृति भी इस अखंड संस्कृति में शामिल हुई हैं। हर संस्कृति की अपनी अलग विशेषता है। भारतीयता की संपूर्णता इसी समाविष्टि में है। विविधता हमारे उत्कृष्ट जीवन की गरिमा है। यह भी हमें ध्यान में रखना है कि किसी भी संस्कृति दूसरे संस्कृति का बिधक न हो। अमानवीय व्यवहार, अत्याचार, अस्पृश्यश्ता का व्यवहार किसी भी इंसान के साथ न हो। हरेक को स्वंतंत्रा है, स्वेच्छा से जीने का, उसे मत छीन लो। इंसानियत का व्यवहार सर्वदा वंदनीय है। भारत की एकता को बनाये रखना एवं इसकी गरिमा को बचाना यहाँ के हर नागरिक का कर्तव्य है।