कविता

हे नागदेवता! सच सच बताओ

हे नागदेवता नमन तुम्हें हैअब तुमसे न लगता हमें डर हैपर मुझे अब महसूस होने लगा हैअब तो तुम्हें हमसे ही डर लगने लगा है ।अच्छा है डरना भी चाहिए,तुम्हारा डर स्वाभाविक भी है।आज जब खेत खलिहान सिकुड़ रहे हैंजंगल भी अब रोज घट रहे हैंनदी नालों पर अतिक्रमण हो रहा हैमिट्टी के घर अब जहाँ तहाँ ही दिख रहा है?खपरैल, छप्पर भी अब तोलगभग इतिहास बन गया है।आधुनिकता की अंधी दौड़ औरतकनीकी विकास के दौर मेंअब तुम्हारे रहने के ठिकाने भीतो बेहद कम हो गये हैं,तुम्हारे अस्तित्व के मिटने के सारे संकेत भीहमें अब साफ़ साफ़ दिख रहा है।शायद तुम्हें भी अब ये अहसास होने लगा हैअपने अस्तित्व का डर अब तुम्हें भी सताने लगा है।डर स्वाभाविक भी है और डरना भी चाहिए ।क्योंकि आजकल के मानवों मेंतुम्हारा स्वभाव घर कर रहा है,उनकी भी आदतों में डसना शामिल हो रहा है,तुम तो हमसे खुद ही डरते होसिर्फ अपने बचाव में ही डसते हो,तुम्हारे डसने से मौतें भी यदा कदा होती हैं,क्योंकि तुम्हारे जहर सेबचाव के रास्ते भी तो बहुत हैं।पर आस्तीन में पलते सांपों के डसने सेभला कितने लोग बचते हैं?उनके जहर से बचने के इलाज भी कहाँ होते हैं?वैसे भी मानव रुपी नागतुमसे ज्यादा जहरीले होते हैं,जो अपनों को भी डसने मेंभला संकोच कहाँ कर रहे हैं?हे नागदेवता! मेरा मन कहता हैकि देवता कहलाते हो,शायद इसी से इतना इतराते हो,बस! एक दिन पूजे जाते होतो कौन सा तमगा पा जाते हो?देवी देवता तब ही कहे जाओगेनागपंचमी पर तब ही पूजे जाओगेजब अपना अस्तित्व बचा पाओगे।वरना देवता कहलाना तो दूरपूँछे भी न जाओगे।मुफ्त की मेरी सलाह पर तत्काल अमल करोऔर खुद का अस्तित्व बचाने के लिएअब खुद मैदान में आ जाओ।बुरा मानो या भला मानोपर सच मानो इतिहास बन जाओगे,सिर्फ किताबों के पन्नों में ही मिल पाओगेऔर कैलेंडर में टंगे रह जाओगे।तब गूगल से दुनिया को अपनी कहानीबताने के सिवा और क्या कर पाओगे?मुझ पर नजरें तिरछी करने सेतुम्हारा भला नहीं होगा?जब तुम्हारा अस्तित्व ही न होगा,तब भला तुम्हें कौन देवता कहेगा,और कौन तुम्हें पूजेगा?नागपंचमी में दूध फिर कैसे पी पाओगे?हे नागदेवता! सच सच बताओहम मानवों से आखिर पार कैसे पाओगे?जब हम ही तुम्हें डसने लग जाएंगेतब अपने को फिर कैसे बचाओगे?हे नागदेवता नमन तुम्हें है
अब तुमसे न लगता हमें डर है
पर मुझे अब महसूस होने लगा है
अब तो तुम्हें हमसे ही डर लगने लगा है ।
अच्छा है डरना भी चाहिए,
तुम्हारा डर स्वाभाविक भी है।
आज जब खेत खलिहान सिकुड़ रहे हैं
जंगल भी अब रोज घट रहे हैं
नदी नालों पर अतिक्रमण हो रहा है
मिट्टी के घर अब जहाँ तहाँ ही दिख रहा है?
खपरैल, छप्पर भी अब तो
लगभग इतिहास बन गया है।
आधुनिकता की अंधी दौड़ और
तकनीकी विकास के दौर में
अब तुम्हारे रहने के ठिकाने भी
तो बेहद कम हो गये हैं,
तुम्हारे अस्तित्व के मिटने के सारे संकेत भी
हमें अब साफ़ साफ़ दिख रहा है।
शायद तुम्हें भी अब ये अहसास होने लगा है
अपने अस्तित्व का डर अब तुम्हें भी सताने लगा है।
डर स्वाभाविक भी है और डरना भी चाहिए ।
क्योंकि आजकल के मानवों में
तुम्हारा स्वभाव घर कर रहा है,
उनकी भी आदतों में डसना शामिल हो रहा है,
तुम तो हमसे खुद ही डरते हो
सिर्फ अपने बचाव में ही डसते हो,
तुम्हारे डसने से मौतें भी यदा कदा होती हैं,
क्योंकि तुम्हारे जहर से
बचाव के रास्ते भी तो बहुत हैं।
पर आस्तीन में पलते सांपों के डसने से
भला कितने लोग बचते हैं?
उनके जहर से बचने के इलाज भी कहाँ होते हैं?
वैसे भी मानव रुपी नाग
तुमसे ज्यादा जहरीले होते हैं,
जो अपनों को भी डसने में
भला संकोच कहाँ कर रहे हैं?
हे नागदेवता! मेरा मन कहता है
कि देवता कहलाते हो,
शायद इसी से इतना इतराते हो,
बस! एक दिन पूजे जाते हो
तो कौन सा तमगा पा जाते हो?
देवी देवता तब ही कहे जाओगे
नागपंचमी पर तब ही पूजे जाओगे
जब अपना अस्तित्व बचा पाओगे।
वरना देवता कहलाना तो दूर
पूँछे भी न जाओगे।
मुफ्त की मेरी सलाह पर तत्काल अमल करो
और खुद का अस्तित्व बचाने के लिए
अब खुद मैदान में आ जाओ।
बुरा मानो या भला मानो
पर सच मानो इतिहास बन जाओगे,
सिर्फ किताबों के पन्नों में ही मिल पाओगे
और कैलेंडर में टंगे रह जाओगे।
तब गूगल से दुनिया को अपनी कहानी
बताने के सिवा और क्या कर पाओगे?
मुझ पर नजरें तिरछी करने से
तुम्हारा भला नहीं होगा?
जब तुम्हारा अस्तित्व ही न होगा,
तब भला तुम्हें कौन देवता कहेगा,
और कौन तुम्हें पूजेगा?
नागपंचमी में दूध फिर कैसे पी पाओगे?
हे नागदेवता! सच सच बताओ
हम मानवों से आखिर पार कैसे पाओगे?
जब हम ही तुम्हें डसने लग जाएंगे
तब अपने को फिर कैसे बचाओगे?

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921