सामाजिक

ये ही हैं सबसे बड़े और घातक शत्रु

यह पूरी दुनिया कुछ अजीब किस्मों के लोगों से भरी पड़ी है। इनमें शत्रुता और मित्रता सदियों से चली आ रही है। देव-दानव संघर्ष से लेकर सज्जनों और मलीन म्लेच्छों के बीच मित्रता और शत्रुता की यह परम्परा आज भी अक्षुण्ण बनी हुई है। पहले के जमाने में मित्रता और शत्रुता दोनों में ही धर्मसंगत व्यवहार दिखता था मगर आज इस मामले में न कोई नीति और धर्म है, न कोई विचारधारा, न लक्ष्य या उद्देश्य। इस मामले में हर तरफ स्वार्थी और बिकाऊ किस्म से परिपूर्ण स्वच्छन्दता और स्वेच्छाचार का ताण्डव पसरा हुआ है। और ये ही वे उन्मुक्त आवारागिर्दी पसन्द लोग हैं जो अपने-अपने स्वार्थों में डूबकर यह दलील देते हैं कि जंग और मोहब्बत में सब कुछ जायज है। और इन्हीं तरह-तरह के नाजायज कुकर्मी व्यवहारों को ये लोग प्रामाणिक और सही ठहराने के आदी हैं।

इनके साथ दो प्रजातियों के कशेरूकी प्राणी और भी हैं जिन्हें तटस्थ अथवा उदासीन की श्रेणी में रखा जा सकता है। कहने को ये कशेरूकी जीव हैं लेकिन सत्य यह है कि इनमें स्वाभिमान की प्रतीक कोई रीढ़ तक नहीं होती। जहाँ अपना स्वार्थ देखा नहीं कि कहीं धनुष की तरह खींच जाते हैं और कहीं कांवड़ की तरह कृत्रिम विनम्रता में भरकर ऐसे झुक जाते हैं कि जैसा कोई और कर ही नहीं सकता। लेकिन सर्वाधिक संख्या उन लोगों की है जो न मित्रता का अर्थ समझते हैं, न मर्यादित शत्रुता का व्यवहार। अब मित्रता के अर्थ शाश्वत और दीर्घकालीन न रहकर मात्र स्वार्थपूर्ति तक सीमित होकर रह गए हैं। जब तक एक-दूसरे के जायज-नाजायज स्वार्थ सधते रहते हैं तब तक संबंध बना रहता है। जैसे ही कहीं लेन-देन या हिस्सेदारी अथवा अहंकारों का प्रवेश हो जाता है अथवा और किन्हीं से स्वार्थपूर्ण सेतु बन जाते हैं, वहीं ये रिश्ते हो जाते हैं धड़ाम।

जनम-जनम या पूरी जिन्दगी तक मित्रता बनाए रखने और निभाने के सारे वादे और दावे हवा हो जाते हैं। तकरीबन हरेक इंसान के जीवन में ऐसे मौके आते रहते हैं जब उसे मित्रता भरे आभामण्डल में धोखे और बिखराव या दूरियों की कालिख नज़र आती है और तब मित्रता जैसे शब्दों से घृणा होने लगती है लेकिन यह सब श्मशानिया वैराग्य से अधिक कुछ नहीं होता। कुछ दिन हुए नहीं कि फिर जैसे थे वैसे। मित्रता का कोई नया संबंध कहीं और जुड़ जाता है और यह अच्छे-बुरे अनुभवों से भरी यात्रा मृत्यु पर्यन्त बरकरार रहती है। आज ये तो कल वे। तटस्थों और मूकद्रष्टाओं से लेकर उदासीनों तक के बारे में ज्यादा सोचने और समझने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि ये लोग मृत्यु लोक में बेशकीमती नगदी फसलों वाले खेतों में बिजूकों की तरह पड़े रहते हैं और धरती पर तब तक भार बने रहते हैं जब तक कि इनकी पांचभौतिक देह मिट्टी में नहीं मिल जाती।

लेकिन इनसे भी अधिक खतरनाक और घातक वे लोग हैं जो मित्रता का स्वाँग रचते हुए अपने सारे स्वार्थों को पूरे करते हैं लेकिन मित्रता होने के बावजूद मित्रों के जीवन-व्यवहार और कर्त्तव्य कर्मों के परिपालन में नाकारा बने रहकर दुश्मनों जैसा व्यवहार करते हैं। बात किसी भी बाड़े, कुनबे, कबीले या तबेले की क्यों न हो। सभी में ज्यादातर लोग ऐसे होते हैं जो कि अपनी खुदगर्जी तक ही रिश्ते निभाते हैं और मित्रता होने के बावजूद श्रेष्ठ व्यक्तियों और श्रेष्ठ कर्मों को सहयोग प्रदान करने में कहीं कोई भूमिका नहीं निभाते। उलटे ये लोग अपनी छवि को हमेशा सकारात्मक बनाए रखने और संबंधों को दुधारू गाय मानते हुए बुरे व्यक्तियों, बुराइयों और गलत-सलत कामों को जानते-बूझते और अपने समक्ष देखते रहने के बावजूद न कभी मुँह खोलते हैं, न विरोध कर पाते हैं और न ही सज्जनों के बचाव में आगे आ पाते हैं। इस मुकाम पर आकर इनकी सारी सज्जनता, मानवीय संवेदनशीलता, मित्रता और सहृदयता पलायन कर जाती है। इस स्थिति मेंं सज्जनों और श्रेष्ठ व्यवहार करने वाले, कर्त्तव्य कर्मों के प्रति ईमानदार और परिश्रमी व्यक्तियों को हमेशा नीचा देखना पड़ता है क्योंकि बुरे लोगों को बुरा कहने वाला और कोई बचता ही नहीं।

जो लोग हमसे मित्रता होने का ढोंग रचते हैं वे हमारे बचाव में कभी नहीं आते। और यही कारण है कि समाज, परिवेश, क्षेत्र और देश में सज्जनों को हमेशा कुण्ठा और अपमान का जहर पीकर रहने को विवश होना पड़ता है और इससे देश की बहुत बड़ी सकारात्मक ऊर्जा पलायन को विवश हो जाती है। ऐसे में उन संबंधों का न कोई औचित्य है, न मूल्य, जो पुरुषार्थी, ईमानदार और कर्मनिष्ठ लोगों के पक्ष में मुखर होकर खड़े नहीं हो सकते। आजकल ऐसे लोगों की हर तरफ भरमार है। अन्यथा नीर-क्षीर न्याय भावना से यदि ये लोग मित्रता के संबंधों को अच्छी तरह निभाते हुए बुरे लोगों को उनकी नीचता के लिए रोकने-टोकने और बाधित करने लगें तो हर बाड़े में माधुर्य के साथ कर्मयोग का सुनहरा स्वरूप सामने आ सकता है।

इस स्थिति में हमारे लिए वे लोग सबसे बड़े और घातक शत्रु हैं जो सच को सच कहने की उदारता नहीं रखते, झूठ और झूठ कहने का साहस नहीं रखते और कामचोर, व्यभिचारी, भ्रष्ट, निकम्मों और नालायक लोगों को प्रश्रय देते रहते हैं। प्रकारान्तर में इन दुष्टों द्वारा किए जाने व्यवहार का पाप इनको भी लगता है। इससे ये बच नहीं सकते। हमारा सबसे बड़ा शत्रु वही है जो हमारे अच्छे और सच्चे कार्यों में सहयोगी न हो, निन्दकों और दुव्यर्वहार के आदी लोगों को डाँटने-फटकारने और उनसे दूरी बनाए रखने का माद्दा नहीं रखता हो। ऐसे लोगों को जितना जल्दी हो सके उन्हें मृत मानकर अपनी पूरी जिन्दगी से तिलांजलि देना ही हमारे हित में और हक में होता है क्योंकि मित्रता का आडम्बर रचने वाले ये ही हमारे अप्रत्यक्ष शत्रु होते हैं। राम को राम और रावण को रावण नहीं कह सकें, तो हमारा जीना और इंसान होना व्यर्थ है।

— डॉ. दीपक आचार्य

*डॉ. दीपक आचार्य

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