थोड़े जज़्बात थोड़ी गुफ़्तगू
थोड़े जज़्बात थोड़ी गुफ़्तगू से दिल मचलता है।
दो घड़ी पास बैठ जाने से ही सुकून मिलता है।
हसरत भरी निगाह हो तब होंठों से संवाद होते,
दिल से अशांत लम्हों का ही जनून निकलता है।
जज़्बात में स्पंदन हो तब चाह होती गुफ्तगू की,
राज छुपा दिल का बताने को दिल पिघलता है।
गुफ़्तगू सिखाता सदा जीवन की धार पर चलना,
जज़्बात अच्छे हो सफ़र भी अच्छा निकलता है।
चौपाल सजती थी यहाॅं पर बुजुर्गों के झुरमुट से,
अब ना रही बात ना मसले का हल निकलता है।
जज़्बातों की गहमागहमी में पिछड़ गया जमाना,
अपने घर से बाहर शख्स कोई नहीं निकलता है।
थोड़े जज़्बात थोड़ी गुफ़्तगू होती रहे घर घर में,
भाईचारा आपस का सौहार्द तब ही निखरता है।
कुंठाओं का बोझ दिल पर बिठा लिया पत्थर सा,
स्नेह का उत्स भला तब कहाॅं दिल से फूटता है।
होगी हसरत कभी पूरी सोची है दिल में अर्से से
यही उम्मीद लिए हर आदमी घर से निकलता है।
— शिव सन्याल