नवगीत
मूर्ख न सुनना चाहे उत्तर ।
चुप रहना ही है श्रेयस्कर।
जबकि अपनो से खट पट हो ,
या कि रिश्तों पर संकट हो,
पल मे हालत चित से पट हो,
अश्रु गिरे नैनो से झर झर ।
चुप रहना ही है श्रेयस्कर ।
जब गुस्से का ज्वार प्रबल हो ,
भाव विपिन में दावानल हो ,
उर पीड़ा से अति विह्वल हो,
उथल पुथल हो मन के भीतर।
चुप रहना ही है श्रेयस्कर ।
गुरू बना बैठा लंपट हो ,
पाले मन में महाकपट हो ,
या खंजर थामे मरकट हो ,
और मूर्ख पलते हो घर घर।
चुप रहना ही है श्रेयस्कर ।
जब पावस हो दादुर गाये,
कीट पतंगे भी हरषाये,
कोयल मन ही मन दुहराये,
बस बसंत जाने पंचम स्वर।
चुप रहना ही है श्रेयस्कर ।
सभा सजी हो मतिमंदो की,
मानचित्र रटते अंधो की ,
कायर कथा कहें द्वंदो की ,
लोभी कहता जग है नश्वर ।
चुप रहना ही है श्रेयस्कर ।
-डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी