कविता

पड़ जाता लेने का देना! (कविता)

बांस हूं, मैं हरा सोना हूं,
“बुद्धिमानों की लकड़ी” हूं,
लंबा-सीधा खड़ा रहता हूं,
कभी नहीं मैं थकता हूं।

तेज़ी से बढ़ता हूं मुझसे,
फर्नीचर भी बना सकते हैं,
टोकरियां, झूले, सजावटी चीजें,
अचार-मुरब्बे-शहद भी बनते हैं।

घर का निर्माण मुझसे होता,
छत के काम भी आता हूं,
ढेरों चीजें मुझसे बनतीं,
बिस्किट-रूप में भी मिलता हूं।

गाने-बजाने-नाचने से है,
मेरा जन्म-जन्म का नाता,
श्याम-बांसुरी बांस से बनती,
बम्बू डांस भी खूब सुहाता।

पानी पी-पी पनपता हूं पर,
सीने में मेरे तापित आग,
मेरे वन में आग लगे तो,
बच नहीं पाएं शेर और बाघ!

अपने मन में वैर-क्रोध की,
अग्नि भड़कने मत देना,
खुद जले, औरों को भी जलाए,
पड़ जाता लेने का देना!

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244