गजल
जाने कैसे हमें लग गया मर्ज़ ये है संगीन बहुत
अपनी तबियत थोड़े दिनों से रहती है गमगीन बहुत
दीवानों सा हाल हुआ है होश नहीं है अपना अब
इश्क हुआ ना था हमको तब हम भी थे शौकीन बहुत
अब तो आ जा कि तेरे बिन कटता नहीं है वक्त मेरा
मौका है दस्तूर भी है और मौसम भी है हसीन बहुत
तनहाई में गाएंगे चल दर्द-ए-दिल के नगमें हम
यहां ना कोई समझेगा ये महफिल है रंगीन बहुत
नहीं चाहिए ज्यादा कुछ बस रोटी कपड़ा और मकान
जिंदा रहने को अपने बस बातें हैं ये तीन बहुत
— भरत मल्होत्रा