लघुकथा

भाग्यवान

मूर्तिकार भारी चिंता में पड़ गया था। पूजा के मात्र चार दिन बाकी थे और बुखार में उसने बिस्तर पकड़ लिया था।

“समय पर मूर्ति नहीं देने पर काफी फजीहत होगी। ग्राहकों से पेशगी की रकम भी ले चुका हूँ।” मूर्तिकार ने पत्नी के सामने चिंता जाहिर की।

 मूर्तिकार की बेटी शिल्पा ने पिता की बातें सुन ली। चौदह -पंद्रह साल की शिल्पा मूर्तिकार की एकमात्र संतान थी। 

“पिताजी, आप चिन्ता मत करें। मूर्तियाँ तो तैयार हैं। सिर्फ रंग से सजाना बाकी है। यह काम मैं कर लूँगी।” शिल्पा ने कहा

 “तुमसे यह काम होगा?”

” पिताजी, मैं आपकी बेटी हूँ। आपका बेटा भी। अभिमन्यु माँ के गर्भ से पिताजी के शब्दों को सुनकर चक्रव्यूह भेद करना सीख गया। मैं तो बरसों से आपके कला कौशल को देखती आ रही हूंँ।”

  बेटी रंग और कूची लेकर मूर्तियों में रंग भरने लगी।

 बेटी की निपुणता देखकर पिता के मुख से अनायास प्रशंसा के शब्द निकल पड़े, “मैं कितना भाग्यवान हूँ ; तुम मेरी बेटी हो।

— निर्मल कुमार दे

निर्मल कुमार डे

जमशेदपुर झारखंड [email protected]