कुंडलिया
मानें मानव-देह की, महिमा अमित अनूप।
मिली तुम्हें भूलोक में, बना धरा का भूप।।
बना धरा का भूप,कर्म मानव के करना।
दानवता को छोड़ , बुरे कर्मों से डरना।।
‘शुभम्’ सत्य क्या झूठ,यही सब मानव जानें।
महिमा अपरंपार, देह मानव की मानें।।
जानें महिमा सत्य की,रहें असत से दूर।
जो करना कर ले यहीं,तन- मन से भरपूर।।
तन – मन से भरपूर,सत्य – आधार बनाएँ।
सोचें सौ – सौ बार , झूठ से राम बचाएँ।।
‘शुभम्’ सत्य ही ईश,जगत में उसको मानें।
सदा विनत हो शीश,सत्य की महिमा जानें।।
अपने जननी-जनक की, महिमा का गुणगान।
आजीवन करता रहे,देकर नित सम्मान।।
देकर नित सम्मान, पितृमय माता तेरी।
पिता देवमय रूप, बढ़ाते शान घनेरी।।
‘शुभम्’ न दूजा और,देख मत झूठे सपने।
रहना सदा कृतज्ञ,जनक -जननी ही अपने।।
खाता -पीता अन्न -जल,जिस धरती का नित्य।
महिमा उसकी गान कर,उसका है औचित्य।।
उसका है औचित्य ,हवा रवि -तेज दिया है।
अंबर पावक नित्य,उसी ने जीव किया है।।
‘शुभम्’ कर्म का भार,सदा ढो रहे न रीता।
पंचतत्त्व का मान,करे नित खाता – पीता।।
माता धरती पूज्य है,कण -कण का है मान।
महिमा उसकी जान ले,रहे न बनकर श्वान।।
रहे न बनकर श्वान, कर्म से जीवन जीता।
अमर वही यश काय, प्रेमरस माँ का पीता।।
‘शुभम्’एक दिन राख,खाक बन नर मर जाता।
चढ़ा न इतनी नाक, रुष्ट हो धरती माता।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’