दोहा गीतिका – कहता है मैं चाँद हूँ
जिया अर्थ-उन्माद में, खोया जीवन-मोल।
अहंकार भीषण बढ़ा,चक्षु ज्ञान के खोल।।
अपनों से ही शत्रुता,अपनों से ही बैर,
लौट वहीं पर आ गया, धरती है ये गोल।
कहता है मैं चाँद हूँ, रौशन मुझसे रात,
दीपक के तल तिमिर है,क्यों अब तो सच बोल।
पास गए जब चाँद के,न थी चाँदनी पास,
उपमाएँ झूठी हुईं, रहा मात्र बकलोल।
मित्रों से करता नहीं, कभी प्रेम से बात,
किस घमंड में चूर है,करनी में है झोल।
तेरे जैसे जा चुके, बड़े रुस्तमे – हिंद,
तू मूली किस खेत की,मन में तेरे पोल।
‘शुभम्’ पथिक यदि भूलता, राहें अपनी भोर,
लौट साँझ को आ सके,कहें बुद्धि का छोल।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’