परदेसी मुसाफिर
परदेसी मुसाफिर तेरा कहां ठिकाना
परदेस हुआ अपना देस हुआ बेगाना
बिन तेरे सूना है आंगन सूना है गलियारा
रंग लगे होली के फीके दीवाली अंधियारा
राखी ले सूनी आंखों से राह निहारे बहना
परदेसी ,,,,,,,,,,,,,,,,.,
कांपते हांथों से मां टटोलती तेरे खिलोने
देखकर तेरे पिता के भीगते आंखों के कोने
तू बैठा है सब बिसराए भूला आना जाना
परदेसी ,,,,,,,,,,,,,,,,
इंतज़ार करते पत्नी के होश हुये बेहोश
पापा कह कह के बच्चों के लब हुये ख़ामोश
सन्नाटे में डूबा घर लगता है वीराना
परदेसी ,,,,,,,,,,,,,,,,,,
तेरे ख़ातिर मात पिता ने सब कुछ छोड़ दिया
तेरा ग़म सीने में लेकर शमशान का रुख़ किया
अंतिम पल भी तू न आया हो गये रवाना
परदेसी ,,,,,,,,,,,,,,,,.
— पुष्पा “स्वाती”