लघुकथा – सुकून
“बहुत थक गई हो इस दिवाली में तुम। चलो घूम आते हैं थोड़ी देर के लिए।”
पति की बातों से खुश हो गई पत्नी और मुस्कुराते हुए कहा,”तुम भी तो थक गए हो। पर्व त्यौहार में थक जाना स्वाभाविक भी है।”
दोनों घर से सौ कदम की दूरी पर पार्क की एक बेंच पर बैठकर बतियाने लगे।
पति पत्नी दो सप्ताह पहले ही इस शहर में आए हैं अपने छोटे बेटे के पास। बेटा अभी अविवाहित ही है और एक नामचीन कंपनी में इंजीनियर है।
“हम लोगों ने इस शहर में पहली बार दिवाली मनाई। खूब आनंद मिला।” पति ने कहा।
“जी,लेकिन अनिका को बहुत मिस कर रही हूँ। अगले महीने एक साल की हो जायेगी अनिका।” पत्नी ने कहा।
” बड़ी बहू ने फोन पर बताया कि अनिका भी खूब मिस कर रही है।” पति ने कहा।
“बहू कितनी परेशानी झेलती होगी,जब सौरभ ऑफिस में होगा और पोती गोद में जाने की जिद करती होगी।”पत्नी ने चिंता जताई।
“देखो कितना क्यूट बच्चा इधर ही आ रहा है।” पति ने एक बच्चे को आते देख कर कहा।
एक डेढ़ साल का बच्चा आकर पत्नी का पल्लू पकड़ लिया।
पत्नी ने बच्चे को गोद में उठा लिया।
बच्चे की माँ भी पीछे पीछे आ गई थी। बच्चे को गोद में देख उसने कहा, “तुम्हें दादी मिल गई! कितना खुश है मेरा सोनू आपकी गोद में आँटी जी!”
“बच्चा प्यार का भूखा होता है बेटा। दादा- दादी का साथ मिले तो बच्चे को भावनात्मक सुकून मिलता है।”
बच्चे की माँ को पहली बार भावनात्मक सुकून की परिभाषा समझ में आई।
— निर्मल कुमार दे