ग़ज़ल
डगर-दर-डगर पैर जाते रहे
नदी जब मिली तैर जाते रहे
सफ़र में मिली जब सुहानी जगह
घड़ी-दो-घड़ी ठैर जाते रहे
मुझे टोकते ख़ुद बने अज़दहे
न करने कभी सैर जाते रहे
ख़तरनाक दुनिया रही तो बहुत
मगर हम मना ख़ैर जाते रहे
जुगों यार की बज़्म चलती रही
न न्योता मुझे ग़ैर जाते रहे
नहीं अब रहा बैर जाएँ कहाँ
चुकाना रहा बैर जाते रहे
निकल दैर से हम हरम में गए
हरम से निकल दैर जाते रहे
— केशव शरण