गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल   

डगर-दर-डगर पैर जाते रहे
नदी जब मिली तैर जाते रहे

सफ़र में मिली जब सुहानी जगह
घड़ी-दो-घड़ी ठैर जाते रहे

मुझे टोकते ख़ुद बने अज़दहे
न करने कभी सैर जाते रहे

ख़तरनाक दुनिया रही तो बहुत
मगर हम मना ख़ैर जाते रहे

जुगों यार की बज़्म चलती रही
न न्योता मुझे ग़ैर जाते रहे

नहीं अब रहा बैर जाएँ कहाँ
चुकाना रहा बैर जाते रहे

निकल दैर से हम हरम में गए
हरम से निकल दैर जाते रहे

— केशव शरण 

केशव शरण

वाराणसी 9415295137