कविता

ज़िन्दगी अगर किताब होती

ज़िन्दगी अगर किताब होती

कोई ही उसको सही से पढ़ पाते

किसी की रखी रह जाती अलमारी में

कोई वरके फाड़ के उड़ जाते

किसी के वरके कोरे रह जाते

किसी के लाल पीले रंगों में रंग जाते

कोई कंठस्थ कर लेता हर्फ़ हर्फ़

कोई सब कुछ भूल जाते

किसी की किताब का पहला और आखिरी पन्ना

होता बहुत सुंदर और लाजबाब

लेकिन बीच के पन्नों से फाड़ देते वह पन्ना

जिस में कुछ लिखा होता खराब

कोई पन्ना हवा के झोंके से अचानक खुल जाता

बीता हुआ बचपन जवानी उसमें सब नज़र आता

कुछ चेहरे आते नज़र जो अब नहीं है दुनिया में

यादें उनकी कोई मन से कैसे निकाल पाता

यह ज़िन्दगी एक किताब सी ही है उसके लिए

जो खोल कर एक एक पन्ना पढ़ गया

नाकाम ही रहा वह उम्र भर जिसने नहीं खोली

मन लगा कर जिसने पढ़ी सीढ़ी दर सीढ़ी चढ़ गया

रवींद्र कुमार शर्मा

*रवींद्र कुमार शर्मा

घुमारवीं जिला बिलासपुर हि प्र