तभी तो यहाँ से सब हस कर निकलते हैं
बड़ी मुश्किल से यहाँ धसकर निकलते हैं
मैदान से अब हुस्न के लश्कर निकलते हैं
उठा गुब्बार टापों से घटा काली लहराई
सामत यहाँ लेकर सुहानी शाम है आयी
कहीं डाका पड़ेगा कहीं लाशें गिराएंगे
अंदाज में ऐसे यहाँ सजकर निकलते हैं
न तीर न तलवार न वो बरछी चलाते
मर जाते सभी हैं नजर तिरछी चलाते
निर्भीकता से हमले सरे राह कर देते
वाकिफ जो हैं वो बच कर निकलते हैं
जो कहर ढा रहे हाक़िम उन्ही के सब
सुनेगा नहीं कोई ख़ादिम उन्ही के सब
मालूम है “राज” मे सुनामी को लाना
तभी तो यहाँ से सब हस कर निकलते हैं
राजकुमार तिवारी “राज”
बाराबंकी