लाज शर्म को तिलांजलि दे चुके होंगे!
जब इस पृथ्वी पर मानव का उदय हुआ तो मानव सर्वप्रथम आदिमानव कहलाया था क्योंकि आदिमानव का मानसिक विकास न होंने के कारण इनके पास किसी भी प्रकार की कोई शर्म लज्जा नही थी और न ही कोई सभ्यता थी पूरी निर्लज्जता के साथ प्रकृति के नियमों पर निर्भर थे सूरज की रोशनी से इनको उजाला मिलता था और रात में चन्द्रमा की चमक से इनको चांदनी मिलती थी, बस उजाले के दो ही स्रोत थे आदिमानव के पास और ये गुफाओं तथा पेंड़ पौधों पर निवास करते थे, आदिमानव का मानसिक विकास न होने के कारण इनके पास अश्लीलता जैसी कोई बात ही नही थी पूरे वातावरण में जिधर जो भी थे सभी नंग धडंग बिन्दास होकर विचरण किया करते थे बिल्कुल आज के जानवरों की तरह, लेकिन कुदरत शायद इतने में संतुष्ट नही थी इसलिये धरती के लिये जो कार्ययोजना बनायी गयी थी उसके अनुरूप आदिमानवों की कार्यशौली कुछ सही साबित नही हो पा रही थी क्योंकि कुदरत ने तो उसी युग में आधुनिकता की भूमिका लिख डाली थी जिस प्रकार जिसका उदय लिखा गया था उसी प्रकार उसका अंत भी लिख दिया गया था! आसान भाषा में यदि कुदरत की रचना को समझा जाये तो जैसे सूर्योदय के समय सूर्य बहुत ही नर्मी से धीरे धीरे गर्मी की ओर बढ़ता रहता है फिर ढलते समय भी गर्मी से गिरते गिरते उसी नर्मी पर पहुंच कर अस्त हो जाता है उसी प्रकार सभ्यता को विकसित करने की पठकथा आदिमानव काल में ही लिखी जा चुकी थी फिर आदिमानव के मानसिक विकास को अस्तित्व में लाया गया आदिमानव धीरे धीरे मानव बनता गया फिर धरती पर नये नये कीर्तमान स्थापित करते- करते आज आधुनिक काल में मानव इतनी रफ्तार के साथ प्रवेश कर चुका है कि उसके वस्त्र अस्त व्यस्त हो गये हैं कपड़ों के चीथड़े हवा में फरफरा रहे है वही अंग कपड़ो से ढका दिखता है जो मजबूती से बंधा हैं और अर्धनग्नता दूर से झलकने लगी है जब अर्धनग्नता पर कोई व्यक्ति एतराज करता है तो उसे! सोंच बदलो! की बात कह कर उसकी नजर को घटिया बताया जाता है और उसका मुंह नोंच लिया जाता है।
अरे जरा सोंचो हम अपनी सोंच क्यों बदलें ? आधुनिकता में अर्धनग्ता का रंग इतना गाढ़ा नजर आ रहा है कि उभर हुये रंग को हर कोई जर्मनी का जेमिनी सर्कस देखना चाह रहा है और दिखाने की नियति से ही रंग को पर्दे से बाहर खुले मंच से नुमाईस की जा रही है ताकि सभी की नजर उसे देखे! तभी तो आज कपड़ों को बचाया जा रहा है और झरोखों की भांति परिधानों को धारण कर आज बाहर आये हैं और जिसे खुले रंग, आधुनिकता व निर्लज्जता से परहेज है वह विल्कुल झरोखे धारण करना पसंद ही नही करेगा। लो जी अब कुछ लोग यह भी कहते फिरते हैं कि मेरा पहनावा तय करने वाले तुम कौन होते हैं ? जी बिल्कुल सही बात है भला मैं आपका पहनावा तय करने वाले कौन होता हूं ? लेकिन हम भी किसका आदर सम्मान करेगें यह तय करने वाले तुम ही कौन होते हो ? हम किसी का सम्मान नही करेंगे इसका यह अर्थ विल्कुल नही कि हम सभी का अपमान ही करेंगे। माना कि आज की सारी पर्दानशी आजाद हैं आजादी से जीने का हक है! भगवान करें सभी को ऐसी आजादी मिले कि सभी नशेमन से निकल कर नशे में डूब जायें तथा नशे का व्यापार करें एवं बडी शालीनता से अश्लीलता को बढ़ावा दें यही तो सभी देखना और सुनना चाह रहे हैं, आजादी पाकर भी यदि तिरस्कार वाले सारे कार्य पुरस्कार वाली सीमा तक न ले जाये जा सके तोे आजादी बेकार है। केवल मुझमें संस्कारों को देखने वाली आंखे क्या इस बात का उत्तर दे पायेंगी कि भारत की किस परंपरा में ये निर्लज्जता और बेशर्मी शोभा देती हैं! जब खुद किसी को भाई या पिता की नजर से नही देखती हैं तो किस मुंह से कहते हैं कि हमें मां बहन की नजर देखो फिर कौन सी मां बहन जो अपने भाई के आंखों के सामने अश्लीलता धारण किये रहती है, और जिस्म की नुमाईश करती रहती हैं, भारत में तो ऐसा नही होता है चलो! थोड़ी देर के लिये हम आपको मां बहन मान भी लें तो क्या मेरेे सामने शर्म को चीरता हुआ जिस्म लाने के लिये तुम्हारा जमीर गवाही देगा।
यह एकदम सत्य है कि अश्लीलता को किसी भी दृष्यकोंण से सही नही ठहराया जा सकता है यह कम उम्र के बच्चों की मानसिकता को प्रभावित करती है, अपराधों को बढावा देती है अश्लीलता और अर्धनग्नता भी एक नशे की दुकान है जिसे समाज के बहुत ही घटिया सोंच वाले लोग इस दुकान का संचालन करते हैं, गली गली और हर मोहल्ले में जिस तरह से मधुशाला खोल देने से बच्चों पर उसका बुरा प्रभाव पड़ता है उसी तरह अर्धनग्नता और अश्लीलता समाज में अनेंक प्रकार के अपराधों को जन्म देती है इसे किसी भी तरह से उचित नही ठहराया जा सकता है यदि नग्नता आज की आधुनिकता का प्रतीक है तो पूरा नग्न होकर पूर्ण आधुनिकता का परिचय क्यों नही दिया जा रहा है। निरंतर बढ़ रही बेशर्मी में किसी हद तक पुरूषों का भी बहुत बडा योगदान है बारूदी गोले पुरूष ही फेंकता है बस फटता कहीं दूर है इस लिये सिर्फ चीथडे लहराते नजर आते हैं खुद दूर दूर तक कहीं नजर नही आता है जिस दिन आधुनिकता पूर्णिमा के चांद की तरह पूर्ण हो जायेगी उस दिन से हम मानव से आदिमानव की सीमा में प्रवेश कर चुके होंगे और लाज शर्म को तिलांजलि दे चुके होंगे तब समझ लेना कि मानव युग का सूर्य अस्त होने में कुछ पल ही शेष बचे हैं।
राजकुमार तिवारी “राज”
बाराबंकी