अंधेरा मिटा जाइए
बस यही कामना आप आ जाइए।
और रातें किसी भांति कट भी गयीं
किन्तु मावस की यह रात कटती नहीं
स्वप्न में ही सही रोज मिलते तो थे
आज पल भर भी पलकें झपकती नहीं
बुझ न जाए कहीं दीप डरता हूँ मैं
वर्तिका यह तनिक सी बढ़ा जाइए।
जो मिले प्रियजनों से उन्हें देखिए
चांद की याद भी उनको आती नहीं
भर गए आंचलों में खुशी के नखत
रोशनी आंगनों में समाती नहीं
कब से बैठा प्रतीक्षा में हूँ आपकी
अब तो आ करके जलवा दिखा जाइए।
आपको भी मेरी आ रही होगी सुधि
आप का भी विकल हो रहा होगा मन
खिड़कियां खोलकर देखते होंगे जब
टहनियों की तरह कांपता होगा तन
चाहिए स्नेह लौ थरथराने लगी
ज्योति बनकर अंधेरा मिटा जाइए।
— डॉ डी एम मिश्र